
भाकपा (CPI) की राष्ट्रीय परिषद की चार अक्टूबर को समाप्त हुई तीन दिवसीय बैठक में कन्हैया कुमार के कांग्रेस में शामिल होने के मुद्दे पर औपचारिक रूप से चर्चा नहीं हुई. लेकिन सूत्रों ने संकेत दिया कि पार्टी नेताओं को उनके इस कदम से ”विश्वासघात” महसूस हुआ. सूत्रों ने कहा कि नेताओं ने महसूस किया कि कुमार को सीधे राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल कर विशेष रूप से भाकपा के भीतर पदोन्नत किया गया था. तीन दिवसीय बैठक में भाग लेने वाले कई नेताओं ने टिप्पणी की कि उनका कांग्रेस में शामिल होना ”कोई आश्चर्य की बात नहीं है” और यह ”अवसरवाद” को दर्शाता है.
भाकपा महासचिव डी राजा ने कहा, ”कन्हैया पर कोई चर्चा नहीं हुई. पार्टी के सहयोगियों द्वारा भाकपा छोड़ने के बारे में कुछ टिप्पणी की गई थी. बस. जैसा कि मैंने पहले कहा, कुमार का कदम उनकी महत्वाकांक्षा का परिणाम था. कोई वैचारिक राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं है. उनके पार्टी छोड़ने से विश्वासघात की भावना पैदा हुई है क्योंकि हमने उन्हें हर मौका दिया था. वह सीधे राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल हुए, विधानसभा चुनाव लड़ा.
समर्थकों ने प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट बताया था
वहीं मिली जानकारी के मुताबिक, कन्हैया के समर्थकों ने उन्हें प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट बताया था. ऐसा शख्स, जिसने राजनीतिक अवसर पर विचारधारा को तरजीह दी. लेकिन अगर ऐसा ही है, तो फिर वह मानवाधिकारों या लोकतांत्रिक अधिकारों का रक्षक होने का दावा कैसे कर सकते हैं? इन अधिकारों को कम्युनिस्ट विचारधारा सख्ती से खारिज करती है. CPI ने स्टालिन के सोवियत संघ के समर्थक के रूप में अपनी शुरुआत की थी. वह हर बात में सोवियत लाइन का हवाला देती थी.
स्टालिन ने लाखों बड़े किसानों और जमींदारों को वर्ग शत्रु घोषित कर मार दिया. 1932-33 में यूक्रेन में अकाल पड़ा. स्टालिन ने यूक्रेन के लोगों को अकाल वाले इलाके से न तो बाहर जाने दिया और न ही वहां खाने-पीने का सामान पहुंचने दिया. 16 देशों ने इसे सामूहिक नरसंहार करार दिया. अनुमान है कि 40 लाख से 70 लाख लोगों की मौत हुई. यानी हिटलर के हाथों होलोकास्ट में मारे गए लोगों जितनी संख्या. लाखों दूसरे लोगों को कैदखानों में डाल दिया गया. फिर भी CPI स्टालिन की समर्थक बनी रही