
पिछले 5 दिनों में प्रदूषण पर सुनवाई के दौरान कई बार सुप्रीम कोर्ट का हंटर चला है. सरकारों को फटकार और लताड़ पड़ी है. आज एक बार फिर जब प्रदूषण पर सुप्रीम में सुनवाई हुई तो कोर्ट ने तीखी टिप्पणी की और सवालों के कोड़े बरसाए. आज की सुनवाई में साफ हो गया कि जब जिंदगी पर पॉल्यूशन भारी पड़ रहा है. तब सरकारें सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का इंतजार कर रही हैं और 21 नवंबर तक इंतजार करने को कह रही हैं. ताकि मौसम बदल जाए और समस्या खुद ब खुद टल जाए.
आज सरकारों ने पॉल्यूशन पर अलग-अलग एक्शन प्लान दिए. जैसे पॉल्यूशन राज्य की सीमाओं में बंटा हुआ हो. और इस संकट से निपटने के लिए अपने-अपने तरीके सुझाए. इससे वन नेशन-वन प्लान की दूर-दूर तक उम्मीद नजर नहीं आ रही है. सुप्रीम कोर्ट ने आज कहा कि प्रदूषण रोकने के नाम पर सिर्फ दिखावे की बैठकें हो रही हैं. पॉल्यूशन रोकने के लिए नीतियां बनाने वाले नौकरशाह फैसला लेने से बच रहे हैं. और वो सिर्फ कोर्ट के आदेश का इंतजार करते रहते हैं.
उनका काम केवल हलफनामे पर हस्ताक्षर करना भर रह गया है. सुप्रीम कोर्ट ने दुखी होकर कहा कि नौकरशाह चाहते हैं कि कोर्ट उन्हें बताए कि आग कैसे बुझाएं. कैसे बाल्टी उठाएं. आपात संकट को सुलझाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल कहीं भी नजर नहीं आ रहा है. अब आपको बताते हैं कि आज सुनवाई के दौरान कोर्ट में हो रही बहस कैसे तीखी होती चली गई.
सुप्रीम कोर्ट की केंद्र सरकार को फटकार
केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता पेश हुए थे और उन्होंने कहा कि मौसम विभाग के अनुसार 21 नवंबर के बाद हवा की स्थिति सुधरेगी. इसलिए 21 नवंबर तक किसी भी तरह का आदेश देने से पहले इंतजार किया जाना चाहिए. इस दलील से सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी बढ़ गई. और कहा कि क्या 21 नवंबर तक प्रकृति खुद आपके बचाव में आ जाएगी? सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के सॉलिसिटर जनरल को फटकार लगाते हुए कहा कि हम मौसम के सुधरने और धुएं के छंटने का इंतजार नहीं कर सकते.
साफ शब्दों में कोर्ट का कहना है कि जिसे काम करना है वो हाथ पर हाथ धरे बैठा है. यानी ब्यूरोक्रेसी पंगु है. लेकिन अब केंद्र और राज्य सरकारों ने अपने हलफनामे में क्या कहा है. ये भी देख लेते हैं. जिसे सुप्रीम कोर्ट ने नाकाफी बताया है.
केंद्र ने कहा है कि वह अपने कर्मचारियों से वर्क फ्रॉम होम कराने के पक्ष में नहीं है. उसने अपने कर्मचारियों को कार पूल करने की एडवाजयरी जारी की है. यानी एक ही गाड़ी से कई कर्मचारी अफसर ऑफिस आएंगे. जिससे प्रदूषण घटेगा. जबकि दिल्ली सरकार ने अपने हलफनामे में कहा है कि उसने स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर, थर्मल पावर प्लांट और कंस्ट्रक्शन बंद कर दिए हैं.
हरियाणा सरकार ने कहा है कि पराली को लेकर वो 15 दिनों तक मीडिया में लगातार विज्ञापन देगी और किसानों से पराली ना जलाने की गुजारिश करेगी.
SC चिंतित- ‘वन नेशन, वन प्लान’ पर नहीं हो रही चर्चा
सुप्रीम कोर्ट की आपत्ति ये है कि कहीं भी वन नेशन वन प्लान की चर्चा नहीं हो रही है. पिछले पांच दिनों से प्रदूषण को लेकर हाय तौबा मची हुई है. लेकिन AQI का स्तर वहीं का वहीं बना हुआ है. अब आपको बताते हैं कि जिस प्रदूषण को लेकर चिंता जताई जा रही है. वो सात करोड़ लोगों के लिए कितना खतरनाक है.
क्या आप यकीन कर सकते हैं कि दिल्ली की इसी जहरीली हवा में कोई नौजवान अपनी बाइक पर निकला हो, लेकिन एक घंटे बाद वो अस्पताल पहुंच गया हो. ये कहानी डरावनी है, लेकिन ये ही इस जहरीली हवा की हकीकत है.
ये घटना 13 नवंबर की है. दोपहर का वक्त था. तब दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडेक्स 400 से ऊपर यानी सीवियर की कैटेगरी में चल रहा था और उसी जहरीली हवा में 29 साल का युवक बाइक से काम पर निकला था. वो एक घंटे तक बाइक दौड़ाता रहा. दिल्ली की सड़कों पर अलग-अलग इलाकों में घूमता रहा और वक्त जैसे-जैसे गुजरता रहा. उसके फेफड़ों में जहर घुलता रहा. करीब 60 मिनट के सफर के बाद युवक को सांस लेने में दिक्कत होने लगी. एक-एक सांस के लिए जोर लगाना पड़ा. छाती जकड़ने लगी. चक्कर आने लगा. खुद की हालत बिगड़ती देख वो पहले घर गया. कुछ देर बाद हालत और बिगड़ गए. युवक आनन फानन में मणिपाल अस्पताल के इमरजेंसी में पहुंच गया और फिर पता चला कि दिल्ली का नौजवान किलर पॉल्यूशन का शिकार हो चुका है.
युवक को इलाज के बाद अस्पताल से छुट्टी मिल चुकी है. लेकिन ये घटना, पॉल्यूशन के लेवल की कलई खोल रही है. हमारे सामने ये सवाल था कि क्या एक युवक की तरह पूरी दिल्ली ही सीने में जलन महसूस कर रही है? ये जानने के लिए हमारी टीम दिल्ली के बड़े अस्पतालों में से एक एलएनजेपी अस्पताल पहुंची. यहां हमें लोगों ने जो बताया वो चौंकाने वाला है.
LNJP अस्पताल में बढे़ 10 फीसदी मरीज
लोग बता रहे थे कि इस गैस चैंबर में रहने की दिक्कत हर इंसान महसूस कर रहा है और ये दिक्कत अस्पतालों में आने वाले मरीजों की संख्या भी बता रही है. पिछले कुछ दिनों से दिल्ली के अस्पताल में अस्थमा के मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ी है. लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि इसमें नौजवानों की संख्या ज्यादा है. लोगों को सांस लेने में सबसे ज्यादा दिक्कत महसूस हो रही है और सिर्फ LNJP में ही ऐसे मरीजों की संख्या 10 फीसदी बढ़ गई है.
दिल्ली का पटेल चेस्ट हॉस्पिटल, एक ऐसा अस्पताल है, जहां सांस से जुड़ी बीमारियों का इलाज करने वाले एक्सपर्ट बैठते हैं. लिहाजा हमने दिल्ली की जहरीली हवा का असर समझने के लिए इस अस्पताल का भी रुख किया और अस्पताल में जो हमें पता चला. वो बेहद खतरनाक है. हमें यहां पर नरेश गाबा मिले. जिनकी पत्नी को पहले कोविड हुआ था और कमजोर फेफड़े पर जब प्रदूषण ने चोट किया तो जिंदगी पर ही बन आई.
एक रिपोर्ट बता रही है कि दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण ने अस्पताल पहुंचने वालों की संख्या को एक सप्ताह के भीतर ही 22% से बढ़ाकर 44% पहुंचा दिया है. यानी मरीजों की संख्या में 100% की रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी हुई है. साफ है, ये एक ऐसा जहर है जो दिख नहीं रहा. लेकिन उसका असर डरा रहा है. लोगों को अस्पताल पहुंचा रहा है.
प्रदूषण से मौत के आंकड़े कोरोना महामारी से भी डरावने
दरअसल प्रदूषण ऐसा जहर है, जिसका सीधा असर देखना मुश्किल होता है. लेकिन हमने कुछ केस के आधार पर बताया कि ये कितना खतरनाक है. और अब इसी खतरे को एक रिसर्च से समझाते हैं. आपने कोरोना की दूसरी लहर आने पर देश में मौत का तांडव देखा था. लेकिन आप ये देख भी नहीं पाए कि देश की राजधानी दिल्ली में कोरोना से ज्यादा जहरीली हवा का तांडव था.
ग्रीनपीस और ग्लोबल कैम्पेनिंग ग्रुप की एक ताजा रिपोर्ट बता रही है कि दिल्ली में 2020 में वायु प्रदूषण से 54 हजार लोगों की मौतें हुई जबकि कोरोना के बीस महीने के दौरान उसकी आधी से भी कम. 25 हजार मौतें हुई. मतलब दिल्ली में कोरोना से दोगुना मौतें सिर्फ वायु प्रदूषण से हुई है. इसके साथ ही 60 हजार करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान भी हुआ है.
गौरतलब है कि ये आंकड़े उस वक्त के हैं जब पूरा देश लॉकडाउन में था. और जिन राज्यों में धुंध छाया रहता है. वहां नीला आसमान दिख रहा था. लेकिन अब दिल्ली की ही एक चौंकाने वाली रिपोर्ट की ओर लौटते हैं. जो ग्रीन टैक्स से जुड़ा है. ये टैक्स इसलिए लिया जाता है कि सरकार की रकम पर्यावरण पर खर्च कर सके. वातावरण को साफ सुथरा रख सके. लेकिन जनता के ग्रीन टैक्स के पैसे का हुआ क्या?
ग्रीन टैक्स के नाम पर 7 सालों में 1439.65 करोड़ रुपये की वसूली
दिल्ली की जहरीली हवा को साफ करने के लिए केजरीवाल सरकार कोई ठोस कार्रवाई करें ना करे. लेकिन इस नाम पर आम लोगों से टैक्स लेने से कभी नहीं चूकती. दिल्ली वाले पर्यावरण के नाम पर दिल्ली सरकार को पिछले सात सालों में करीब साढ़े चौदह सौ करोड़ का टैक्स दे चुके हैं. लेकिन इसके बदले में उन्हें केवल दम घोंटने वाला प्रदूषण ही मिला है. दिल्ली सरकार ने ग्रीन टैक्स के रूप में पिछले सात सालों में कुल 1439.65 करोड़ रूपयों की वसूली की है
ये टैक्स गाड़ियों की खरीद, दिल्ली में बाहर से आने वाली गाड़ियों से टैक्स के रूप में, पेट्रो उत्पादों की बिक्री से और राजधानी में चल रही निर्माण इकाइयों से लिया गया. नियमों के मुताबिक इसका उपयोग पर्यावरण को साफ रखने के लिए किया जाना चाहिए था. मतलब आपकी खून-पसीने की कमाई का एक हिस्सा जो टैक्स के तौर पर वसूली गई. बदले में ये भरोसा दिया गया कि पाई पाई का इस्तेमाल पर्यावरण के लिए होगा. लेकिन हुआ क्या ये जानकर आप दंग रह जाएंगे. हम आपको हकीकत बताएंगे लेकिन पहले ये जान लीजिए ये जानकारी किसने निकाली है. RTI लगाई गई थी जिसमें दिल्ली सरकार के ग्रीन टैक्स के रुप में पिछले 6 सालों में 1439 करोड़ रुपए वसूले की बात सामने आई. अब सवाल है कि दिल्ली सरकार ने सात साल में जो वसूली की उसे कहां और कैसे खर्च किया. बीजेपी का आरोप है कि केजरीवाल सरकार ने पर्यावरण से ज्यादा पब्लिसिटी पर खर्च किया है.
प्रदूषण की रोकथाम के लिए अरविंद केजरीवाल ने महज 40 हजार रुपए खर्च किए. जिससे डीकम्पोजर कैप्सूल खरीदे गए. दूसरी तरफ प्रदूषण की रोकथाम के लिए एडवरटाइजिंग पर 15 करोड़ से ज्यादा खर्च किए गए. यानी 40 हजार का काम और लगभग 16 करोड़ उसके प्रचार में खर्च हुए.
दिल्ली में प्रदूषण की रोकथाम और पब्लिसिटी के बीच का अंतर 4 हजार गुना है. लिहाजा हमने दिल्ली सरकार के मंत्री से भी पूछा कि ग्रीन टैक्स के नाम पर वसूली गई 1400 करोड़ रुपये की रकम खर्च कहां की गई. दिल्ली के पर्यावरण मंत्री 1400 करोड़ रुपये के ग्रीन टैक्स के सवाल पर गोल मोल जवाब देकर निकल गए. उन्होंने ये तो बताय़ा कि ईरिक्शा और इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रोत्साहन पर खर्च हुए लेकिन ये बताने से बच निकले कि इलेक्ट्रिक वाहनों की सब्सिडी के नाम पर कितना पैसा खर्च हुआ. सवाल उठता है कि क्या दिल्ली की जनता पर्यावरण के नाम पर टैक्स देकर भी जहर पीने को मजबूर है और सरकार ग्रीन टैक्स वसूलने के बाद भी गैर जिम्मेदार बनी है.
समस्या सिर्फ टैक्स के पैसे के डायवर्ट होने की नहीं है. सवाल सात करोड़ जानों की है. क्योंकि हर किसी की जिंदगी दांव पर लगी है. लेकिन ये इतना बड़ा खतरा ना तो किसी पार्टी के एजेंडे पर होता है. ना सरकारों के एजेंडे पर. यहां तक कि जब ब्यूरोक्रेसी से भी इसका हल पूछा जाता है. तो किसी अज्ञानी बच्चे की तरह अधिकारी भी सिर खुजाने लगते हैं.
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