
ये वो दौर था जब देश पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था, मंगल पांडे कारतूस को मुंह से काटकर खोलने से इन्कार कर चुके थे, क्योंकि उसमें चर्बी थी, उन्हें फांसी दी जा चुकी थी. मगर उनकी बहादुरी के किस्से देशभर में फैल चुके थे. मेरठ भी इससे अछूता नहीं था. मंगल पांडे के जज्बे की खबर जब मेरठ छावनी में तैनात इंफेंट्री के सिपाहियों को लगी तो विरोध के स्वर पनपने लगे, एक साथ 85 भारतीय सैनिकों ने कारतूस मुंह से काटने से इन्कार कर दिया. इस आवाज को दबाने के अंग्रेजों ने खूब प्रयास किए, लेकिन तब तक ये चिंगारी शोला बन चुकी थी, आम लोग हाथों में हथियार उठाकर क्रांति की राह पर चल पड़े थे और पुलिस भी इनका कंधे से कंधा मिलाकर साथ दे रही थी. TV9 की इस खास सीरीज में हम आपको क्रांति के उसी इतिहास से रूबरू कराने जा रहे हैं जिसकी मशाल मेरठ के गली-चौराहों और मोहल्लों में जली थी.
कोर्ट मार्शल कर सैनिकों को बनाया गया बंदी
इंफैंट्री के भारतीय सैनिकों ने एनफील्ड बंदूक का कारतूस इस्तेमाल करने से इन्कार कर दिया. 9 मई 1857 को मेरठ छावनी में इन सैनिकों का पहले कोर्ट मार्शल किया, फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस कार्रवाई से इंफैंट्री के अन्य सैनिकों के साथ-साथ आम लोगों में भी असंतोष बढ़ा. इतिहासकार केडी शर्मा के मुताबिक अंग्रेजों को इस बात का डर था कि अगर इन सैनिकों को बैरक में बंद किया तो विरोध और भड़क सकता है, ऐसे में इन सैनिकों के लिए छावनी से तकरीबन पांच किमी दूर एक अस्थाई जेल बनाई गई, जिसे विक्टोरिया जेल नाम दिया गया. वर्तमान में इसे ही विक्टोरिया पार्क के नाम से जाना जाता है.
जब गूंजा ‘मारो फिरंगी’ का नारा
सैनिकों की गिरफ्तारी की खबर मिलते ही हजारों की तादाद में लोग इकट्ठे हो गए और सैनिकों की रिहाई की मांग करने लगे, कोतवाल धन सिंह गुर्जर और उनके साथ अन्य पुलिसवाले भी आम लोगों के साथ आ गए, सिर्फ अंग्रेजों के वफादार पुलिसकर्मी इस विद्रोह को दबाने की कोशिश में जुटे लेकिन उनकी संख्या नाकाफी थी. ब्रिटिश पुलिस अधिकारी कर्नल जोंस ने क्रांतिकारियों को रोकने का प्रयास किया तो भीड़ ने उनकी हत्या कर दी. मारो फिरंगी नारा गूंज उठा, छावनी और सदर बाजार क्षेत्र में नारेबाजी करते हुए लोग आगे बढ़ते गए.
छुड़ा लिए सभी सैनिक और अन्य कैदी
गुस्साए सैनिक, आक्रोशित भीड़ और मददगार पुलिसकर्मी आगे बढ़ते गए और विक्टोरिया जेल तक पहुंच गए. यहां गोरे सिपाहियों पर हमला बोलकर क्रांतिवीरों ने बंदी बनाए गए सभी 85 सैनिकों और अन्य भारतीय कैदियों को छुड़ा लिया, जिन्हें किसी न किसी आरोप में अंग्रेजों ने कैद किया था. कुछ ही देर में क्रांति की इस चिंगारी ने ज्वाला का रूप ले लिया और पूरे शहर में इसकी अलख जग गई. रात को ही सभी सैनिक जुटे और दिल्ली रवाना हो गए.
लाल किले पर कर लिया था कब्जा
मेरठ अंग्रेजी सेना का बड़ा केंद्र था, जब यहां विद्रोह की चिंगारी फूटी तो महज एक दिन में ही क्रांतिकारियों ने मेरठ पर नियंत्रण कर अंग्रेजों को बुरी तरह मात दी. meerut.nic.in के मुताबिक मेरठ के बाद क्रांतिवीरों ने दिल्ली की ओर कूच कर दिया और अगले ही दिन लाल किले पर कब्जा कर लिया. इस विद्रोह में क्रांतिकारियों के साथ साधारण लोग भी शामिल थे. धीरे-धीरे यह चिंगारी संपूर्ण देश में ज्वाला बन गई और भारत से अंग्रेजों के पैर उखड़ने का कारण बनी.
उस विद्रोह के नायक थे धन सिंह गुर्जर
उस क्रांति के दौरान मेरठ के कोतवाल धन सिंह गुर्जर थे, उन्होंने क्रांतिकारियों का खुलकर साथ दिया था. अंग्रेजों को यह बात बर्दाश्त नहीं हुई, धन सिंह को इसका मुख्य दोषी मनाया गया और उन्हें फांसी पर लटका दिया गया. मेरठ गजेटियर के अनुसार इस विद्रोह का बदला लेने के लिए अंग्रेज भारी दल बल के साथ उनके गांव पांचाली पहुंचे और तोपों से हमला कर दिया. इस हमले में कई लोग शहीद हो गए. जो पकड़े गए उन्हें एक साथ फांसी दे दी गई और पूरे गांव को नष्ट कर दिया गया.
गगोल गांव में आज भी नहीं मनता दशहरा
मेरठ में एक गांव ऐसा भी है जहां 1857 के बाद से आज तक दशहरा नहीं मनाया गया. यह गांव है मुख्यालय से 30 किमी दूरी पर स्थित गगोल, इस गांव के नौ लोगों को एक साथ फांसी दी गई थी. अंग्रेजों ने इन्हें गांव के ही एक पीपल के पेड़ पर दशहरे के दिन लटकाया था. इन क्रांतिकारियों के नाम दरबा सिंह, घसीटा सिंह, रमन सिंह, बैरम, कढेरा सिंह, राम सहाय, शिब्बा सिंह, हरजस सिंह और हिम्मत सिंह थे. इन्हीं की याद में तब से अब तक कभी दशहरा नहीं मनाया गया.
मेरठ में बना है शहीद स्मारक
प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन की 100 वीं वर्षगांठ पर 1957 में यहां शहीद स्मारक बनाया गया था जो क्रांति की गवाही देता है, यहां एक शिलालेख भी है जिस पर 85 सिपाहियों के नाम दर्ज हैं. 2007 में यहां एक संग्रहालय की भी स्थापना की गई है.
एनफील्ड बंदूक का कारतूस था विद्रोह का कारण
1857 की क्रांति की प्रमुख वजह एनफील्ड बंदूक का कारतूस था, जिस पर चर्बी लगी थी. यह 0.577 कैलीबर की गन थी जो बेहद अचूक और शक्तिशाली मानी जाती थी. इसमें कारतूस के ऊपर लगी चर्बी को दांतों से हटाकर भरना पड़ता था. यह चर्बी कारतूस को सीलन से बचाने के लिए लगाई जाती थी.