जंग-ए-आजादी में हर क्रांतिकारी ने ‘इंकलाब’ का नारा बुलंद किया, देश पर मर मिटने के साथ ऐसी छाप छोड़ी जो अंग्रेजों की जड़ें हिलाने में महत्वपूर्ण सिद्ध हुई. वो दौर था ही ऐसा, एक तरफ तो देश में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बज चुका था. शांतिपूर्ण आंदोलनों के साथ-साथ हिंसक प्रदर्शन भी हो रहे थे. इन्हें दबाने के लिए अंग्रेज निर्ममता से भारतीय क्रांतिकारियों को कभी कोड़े मारे जाने की सजा देते थे तो कभी फांसी पर लटका देते थे. ये जुल्म ही क्रांति की ज्वाला में घी का काम करते थे और इंकलाब का नारा और बुलंद हो उठता था, सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी जो भारतीय रहते थे या पढ़ाई के लिए गए थे, उनका भी खून उबाल मारता था. उस वक्त इंग्लैंड में पढ़ाई कर रहे मदन लाल धींगरा भी ऐसे ही युवाओं में थे जो आजादी के आंदोलन को अपने लहू से सींचने को तैयार थे. TV9 की खास सीरीज में जानिए कि कैसे मदन लाल धींगरा ने 1909 में अंग्रेज अफसर को उसी के देश में गोली मार दी थी. उन पर अभियोग चला और उन्हें फांसी की सजा हुई, लेकिन उनका पार्थिव शरीर भारत नहीं लाया जा सका. 67 साल बाद 1976 में उनकी अस्थियां भारत लाई जा सकीं.
अमृतसर में हुआ था जन्म, पिता थे सर्जन
मदन लाल धींगरा का जन्म 1883 में अमृतसर के कटड़ा शेर सिंह में हुआ था, उनके जन्मदिन के बारे में अलग-अलग तथ्य हैं, कोई उन्हें फरवरी में जन्मा बताता है तो कोई सितंबर में. उनकी माता बड़ी धार्मिक स्वभाव की थीं, लेकिन सर्जन होने के नाते पिता के संबंध अंग्रेजों से थे. इससे ठीक उलट धींगरा जी बचपन से ही क्रांतिकारी विचारों के थे. इसीलिए उनकी ज्यादातर पिता से बनी नहीं. उन्होंने कई काम किए लेकिन हर बार उनका क्रांति का स्वभाव आड़े आया, आखिरकार 1906 में भाई की मदद से वे इंग्लैंड पढ़ाई करने चले गए.
लंदन में हुई थी सावरकर से मुलाकात
मदन लाल धींगरा के लंदन पहुंचने से पहले ही वहां एक इंडिया हाउस बन चुका था. दरअसल क्रांतिकारी श्याम कृष्ण वर्मा ने वहां 1905 में एक घर खरीदा था, जिसे इंडिया हाउस नाम देकर भारतीय छात्रों के लिए हॉस्टल बना दिया गया. धींगरा जी जब लंदन आए तो यहीं रहे. इसी बीच कानून की पढ़ाई करने के लिए 1906 में वीर सावरकर भी लंदन पहुंच गए और तीन साल तक इंडिया हाउस में रहे. यहीं धींगरा जी की सावरकर और अन्य भारतीयों से मुलाकात हुई.
भारत में हो रहे जुल्मों से पनप रहा था गुस्सा
ज्यादातर भारतीय छात्र इंडिया हाउस में एक साथ ही रह रहे थे, ये उस समय ये घर भारतीय छात्रों के राजनीतिक क्रियाकलापों का केंद्र हुआ करता था. जब भारतीय छात्रों को अंग्रेजों द्वारा भारत में किए जा रहे जुल्मों की जानकारी मिलती थी तो वे तिलमिला उठते थे और अंग्रेजों से बदला लेने की योजना बनाते रहते थे. मदन लाल धींगरा भी इन्हीं में से थे. वे सावरकर और श्याम कृष्ण वर्मा के बेहद करीब रहे. उन्हें अभिनव भारत नामक क्रांतिकारी संस्था का सदस्य सावरकर ने ही बनाया था. ऐसा माना जाता है कि इसी के बाद उन्होंने हथियार चलाने का प्रशिक्षण लिया था.
कर्जन वायली के सीने में उतार दी थीं चार गोलियां
1909 के जुलाई माह में इंग्लैंड में इंडिययन नेशनल एसोसिएशन का एक वार्षिक समारोह था, इसमें कई ब्रिटिश अधिकारी उपस्थित थे, मदन लाल धींगरा भी कई भारतीय छात्रों के साथ बदला लेने के उद्देश्य से यहां पहुंचे थे. विलियम हट कर्जन वायली ही वो अधिकारी थे जो भारत में लंबे समय तक ब्रिटिश सीक्रेट पुलिस का हिस्सा रहे, वे अंग्रेजों के लिए भारतीयों से जासूसी कराते थे और उन पर जुल्म करते थे. इसी गुस्से के चलते मदन लाल ने समारोह में ही उन पर फायरिंग कर दी. ऐसा कहा जाता है कि मदन लाल ने पांच गोलियां चलाई थीं, इनमें से वायली को लगी थीं, जिससे उसकी मौत हो गई थी. छठवी गोली से मदन लाल ने खुद को मारने का प्रयास किया था, लेकिन उससे पहले ही पकड़ लिए गए थे.
फांसी की सजा सुनकर जज से बोले शुक्रिया!
मदनलाल धींगरा पर अभियोग चला और कर्जन वायली की हत्या के मामले में उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई. सजा सुनने के बाद उन्होंने सिर तानकर जज को शुक्रिया कहा था- ‘मुझे कोई फिक्र नहीं, गर्व है कि मैं मां भारती के लिए अपने प्राणों की आहुति दूंगा’ 17 अगस्त 1909 को उन्हें लंदन की पेंटविले जेल में फांसी की सजा दे दी गई थी. उनकी इस हरकत से पिता ऐसे खफा हुए कि उनके पार्थिव शरीर को भारत लाने का प्रयास ही नहीं किया गया. अंतत: उन्हें वहीं दफना दिया गया.
1976 में वापस लाई गईं अस्थियां
लंबे समय तक मदन लाल धींगरा की अस्थियां लंदन में ही रहीं. आजादी के बाद 1970 के दशक में उन्हें वापस लाने की मांग ने जोर पकड़ा, पहले आंदोलन और फिर पत्राचार हुआ 1976 में तत्कालीन सरकार की पहल पर उनकी अस्थियां भारत लाई गईं.
अजमेर में है स्मारक स्थल
मदन लाल धींगरा से युवा पीढ़ी बेशक अंजान हो, लेकिन आजादी के आंदोलन में उनका कितना नाम था इस बात का प्रमाण उनके स्मारक स्थल से मिलते थे वह रहने वाले पंजाब के थे, लेकिन उनका स्मारक स्थल अजमेर में भी है. ये ढींगरा स्मारक उनके शौर्य और आजादी के प्रति उनकी दीवानगी की याद दिलाता है. 1992 में भारत सरकार ने उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए एक डाक टिकट भी जारी किया था.