हाथों में नंगी तलवार लिए, अपने घोड़े सारंग पर सवार वीरांगना, अंग्रेजों से मुकाबला करती जा रही थीं, पीठ पर कपड़े के साथ अपने दत्तक पुत्र को बांधा था, झांसी से कालपी और फिर ग्वालियर तक यह युद्ध चला, फिर उस वीर नारी को अपने देश और कर्तव्य के लिए प्राणों की आहुति देनी पड़ी. यह वीरांगना और कोई नहीं बल्कि रानी लक्ष्मीबाई (Rani LaxmiBai) थीं, वही लक्ष्मीबाई जिन्हें अंग्रेजों ने कई प्रलोभन दिए, मगर राज्य हड़प नीति के विरोध में उन्होंने जंग का ऐसा ऐलान किया कि अंग्रेज भी कांप गए. 18 जून 1858 को ग्वालियर में अंग्रेजों से युद्ध के दौरान ही उन्हें वीरगति प्राप्त हुई थी. आज उनका निर्वाण दिवस है, ऐसे में TV9 की इस खास सीरीज में हम आपको उसी महान वीरांगना की जीवन गाथा से रूबरू करा रहे हैं…
काशी में हुआ था जन्म
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को काशी में हुआ था, पिता मोरोपंत तांबे और माता भागीरथी बाई ने इनका नाम मणिकर्णिका रखा, लेकिन प्यार से इन्हें मनु बुलाया जाता था, वह चार साल की थीं तभी मां भागीरथी बाई चल बसीं, ऐसे में पिता मोरोपंत उन्हें लेकर बिठूर पेशवा बाजीराव द्वितीय के पास आ गए.
पेशवा ने नाम रखा छबीली
मोरोपंत तांबे पेशवा बाजीराव के दरबारी थे, घर पर देखभाल के लिए कोई नहीं था ऐसे में वे मनु को दरबार में ही ले आते थे, अपने चंचल स्वभाव के कारण वह थोड़े ही दिनों में सभी दरबारियों की प्रिय हो गईं, खुद पेशवा बाजीराव द्वितीय मनु के चंचल स्वभाव को बेहद पसंद करते थे, खुद उन्होंने मनु को छबीली नाम दिया और वह हर बार इसी नाम से पुकारा करते थे.
बिठूर में नाना साहब के साथ सीखा रणकौशल
संतान न होने पर पेशवा बाजीराव द्वितीय ने 1927 में नाना साहब को गोद लिया था, मनु के बिठूर आने के बाद दोनों साथ ही पले-बढ़े और साथ ही घुड़सवारी, तलवारबाजी, मल्ल विद्या सहित अन्य युद्ध कलाएं सीखीं, शस्त्रों के साथ-साथ उन्होंने शास्त्रों की शिक्षा भी ली. दोनों साथ में ही हाथी की सवारी करते थे और युद्ध विद्या का ज्ञान लेते थे.
1842 में हुआ था राजा गंगाधर राव से विवाह
लक्ष्मीबाई का विवाह 1842 में झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ बड़ी धूमधाम से हुआ. बिठूर की मनु और छबीली अब झांसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई थी. 1851 में लक्ष्मीबाई को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, महज चार माह बाद ही पुत्र की मौत हो गई. इससे राजा गंगाधर राव बुरी तरह टूट गए और अस्वस्थ रहने लगे. उन्होंने अपने परिवार के ही वसुदेव नेवलकर के पुत्र आनंदराव को गोद लिया और नाम दिया दामोदर गंगाध राव, 21 नवंबर 1853 को राजा गंगाधर राव का निधन हो गया और रानी लक्ष्मीबाई पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा.
खुद को संभाला और कर दिया जंग का ऐलान
राजा गंगाधर राव के निधन की खबर अंग्रेजों को लगी तो उन्होंने रानी के दत्तक पुत्र बालक दामोदर राव को झांसी का उत्तराधिकासरी मानने से इनकार कर दिया और राज्य हड़प नीति के तहत झांसी का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय का फैसला लिया. लक्ष्मीबाई ने जान लैंग नाम के एक ब्रिटिश वकील से मिलकर लंदन की अदालत में मुकदमा दायर किया लेकिन वह खारिज कर दिया गया. इसके बाद लक्ष्मीबाई ने खुद को संभाला और स्वयंसेवकों की सेना गठित कर जंग का ऐलान कर दिया.
अंग्रेजों ने कर दिया झांसी पर हमला
1857 की क्रांति का झांसी प्रमुख केंद्र बन चुका था, अंग्रेज रानी के नाम से भी कांपते थे, रानी लक्ष्मीबाई भी अंग्रेजी दास्तां स्वीकार करने से इन्कार कर चुकी थीं, इससे अंग्रेज अफसर बुरी तरह बौखला गए थे, ऐसे में 1858 में अचानक अंग्रेजों ने झांसी पर हमला कर दिया. रानी धोखे का शिकार हुईं और अंग्रेज किले के अंदर दाखिल हो गए. उन्होंने दामोदर को पीठ पर बांधा और हाथों में नंगी तलवार लिए वह अंग्रेजों से मुकाबला करने लगीं. अंग्रेजी सेना के लगातार बढ़ते रहने पर विश्वास पात्र लोगों की सलाह पर रानी कालपी दुर्ग की ओर निकल गईं.
अंग्रेज कप्तान ह्यू रोज कालपी तक पहुंचा
रानी लक्ष्मीबाई कालपी दुर्ग पहुंचीं, वहां नाना साहब और उनके सेनापति तात्या टोपे व अन्य विश्वासपात्रों के साथ बैठक कर अंग्रेजों को पराजित करने की रणनीति बनाई, आसपास के राजाओं को भी बुलाया, मगर व्यापक सहयोग नहीं मिला. इधर ब्रिटिश जनरल ह्यू रोज रानी लक्ष्मीबाई के पीछे कालपी तक पहुंच गया. 7 मई 1858 को कोंच क्षेत्र में भीषण युद्ध हुआ मगर अंग्रेज सफल रहे और दुर्ग तक पहुंच गए. 22 मई को ह्यू रोज ने लगातार 20 घंटे तक गोले बरसाए और अंतत: दुर्ग में प्रवेश कर ही लिया. अंग्रेज अफसर की योजना रानी लक्ष्मीबाई को जिंदा या मुर्दा पकड़ने की थी, लेकिन उसे निराशा हाथ लगी, क्योंकि लक्ष्मीबाई, नाना साहब और तात्या टोपे दुर्ग के गुप्त रास्ते से निकल चुके थे.
ह्यू रोज ने माना रानी को ‘मर्द’
कालपी दुर्ग से निकलने के बाद रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब की संयुक्त सेना ने ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया और अंग्रेजों से तीसरे मुकाबले की तैयारी शुरू कर दी. अंग्रेज अफसर ह्यू रोज अब तक बौखला चुका था, इसीलिए वो रानी के पीछे ग्वालियर तक पहुंच गया. 18 जून 1858 को ग्वालियर के पास सराय में अंग्रेज सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं. लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यू रोज ने लिखा था- ‘रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुंदरता, चालाकी, दृढ़ता के लिए उल्लेखनीय तो थी हीं, विद्रोही नेताओं में वह अकेली मर्द थीं’.