बीते शुक्रवार को देश के अलग-अलग कोने में मचाए गए खूनी बवाल के बाद से, सभी राज्यों की पुलिस और देश की केंद्रीय जांच व खुफिया एजेंसियों ने अपने काम करने की रणनीति में आमूल-चूल परिवर्तन किए हैं. ताकि इन बदलावों की फसादियों के पास कोई तोड़ ही न हो. माना यह जा रहा है कि पिछले दिनों हुए बवाल के चलते यह फैसला लिया गया है. ताकि बवाली या फसादी अगर गर्दन उठाकर भी देखें तो उन्हें खड़े होने से पहले ही दबोच लिया जाए. क्योंकि यह हाथ-पांव तभी ज्यादा फैलाना (बलवा, उपद्रव, पथराव आदि) शुरू करते हैं जब इन्हें लगता है कि अब यह ठीक-ठाक भीड़ के रूप में गुट बनाकर अलग अलग जगहों पर इकट्ठे हो चुके हैं. हाल में कानपुर, उत्तर प्रदेश के ही प्रयागराज या फिर किन्हीं अन्य स्थानों में हुए फसाद की बात हो. चाहे पश्चिम बंगाल अथवा देश के किसी अन्य राज्य में बीते शुक्रवार को नमाज के आसपास जमकर हुई पत्थरबाजी की खबरें.
दरअसल, यह आमूल-चूल परिवर्तन और एजेंसियों के बीच पहले ज्यादा बेहतर तालमेल बैठाने की जरूरत इसीलिए पड़ी है क्योंकि, बीते शुक्रवार को देश भर में हुए जिस बवाल को लोग बहुत बड़ा मान रहे हैं. अंदर की हकीकत यह है कि वो बहुत बड़ा बवाल ही करने की योजना थी जिसे एजेंसियों की सतर्कता के चलते ही एक से दो दिन के भीतर ही काबू कर लिया गया. देश भर में सैकड़ों की तादाद में गिरफ्तार बलवाईयों पर एनएसए यानी राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम लागू कर डाला गया. मतलब साफ है कि जिन जिन के ऊपर रासुका लगी है अब साल भर तक पुलिस और समाज को इन उपद्रवियों से निजात मिलती रहेगी. इन सबको जेल भेजने के बाद अब चाहे यूपी पुलिस हो, या फिर पश्चिम बंगाल अथवा किसी और उस राज्य की पुलिस जहां छिटपुट घटनाएं ही देखने को मिलीं. इन स्थानों पर जेल भेजे जा चुके लोगों की अब चेन तलाशी का काम गली-गली, घर घर हो रहा है. जेल जाने वाले मास्टरमाइंड बलवाइयों के साथ साथ यह खुले न बाहर रह जाएं. आईंदा किसी और बड़ी घटना की प्लानिंग बनाकर उसे अमल में लाने के लिए.
अगर एजेंसियों के पास इनपुट मौजूद न होता तो…
डीआईजी स्तर के एक पूर्व खुफिया अधिकारी के मुताबिक,”आपको, मीडिया और आमजन को शुक्रवार की सी घटनाएं चौंकाने वाली हो सकती हैं. इंटेलीजेंस गेदर करके आगे संबंधित पुलिस या एजेंसियों तक पहुंचाने वालों के लिए यह उनकी ड्यूटी का हिस्सा है. ऐसी हर घटना अगर हमारी कमजोरियां उजागर करती हैं, तो वे बहुत कुछ हमें (पुलिस, जांच व खुफिया एजेंसियों को) सिखा भी जाती है. उदाहरण के लिए आप बीते दिनों यूपी के प्रयागराज या फिर कानपुर समस्या को ही ले लीजिए. मैं इस बात से इनकार नहीं करता हूं कि सरकारी मशीनरी इन मामलों में खरी ही उतरी. हां, इतना जरूर है कि अगर पहले से ही पुलिस के पास थोड़ा बहुत भी इनपुट मौजूद न होता, तब आप कल्पना नहीं कर सकते हैं कि, ऐसे मौके पर बलवाई किस हद तक पार जाने की हर कोशिश कर सकते हैं. कुछ कमियां अगर सरकारी एजेंसियों की रहीं. उसके बाद भी अगर इतने पर निपट गया. तो इसे आप सरकारी एजेंसियों का सीधे सीधे फेलुअर करार नहीं दे सकते. जरूर पहले से इन सबका इंटलीजेंस इनपुट मौजूद था. जो सब कुछ एक दो दिन में ही रोक लिया गया.”
ऐसी घटनाओं के बाद सरकारी एजेंसियां क्या अपने कार्यशैली में बेहतरी के लिए कुछ बदलाव करती हैं? पूछे जाने पर 1974 बैच के उत्तर प्रदेश कैडर के पूर्व आईपीएस अधिकारी और राज्य के पूर्व पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह कहते हैं, “किसी भी घटना के लिए सरकार और सरकारी मशीनरी के सिर पर घड़ा फोड़ देना घर बैठे बहुत आसान है. मैदान में पत्थरबाजों के सामने उतर जाइए न देखिए तब पता लगेगा, घर बैठे बैठे ही सरकारी एजेंसियों को ज्ञान बघारने और पत्थर खाने में क्या फर्क है? कोई सरकारी खुफिया अधिकारी या पुलिस इस हद तक की निकम्मी कैसे हो सकती है कि वो, खुद ही पत्थरबाजों के हाथ अपनी अकाल मौत को बुलवाने के इंतजाम कर लें? हां यह जरूर मैं मानता हूं कि, कहीं कोई न कोई किसी स्थान पर छोटा मोटा छेद सरकारी एजेंसियों में जरूर बलवाइयों को दिखाई दिया होगा. जिसे देखते ही वे उसकी ओर भाग खड़े हुए. जिसका परिणाम प्रयागराज, रांची, पश्चिम बंगाल है. मगर मीडिया इस बात की खैर क्यों नहीं मनाता-बताता है कि सिर पर आई थी हाथ टूटकर आफत टल गई. एजेंसियों और पुलिस के अलर्ट के चलते ही यह संभव हो सका.”
प्रयागराज घटना पर क्या बोले विक्रम सिंह?
आप चूंकि खुद उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे के पुलिस महानिदेशक रह चुके हैं इसलिए आप ऐसा बोल रहे हैं? पूछने पर विक्रम सिंह बोले, “नहीं मैंने खुद ऐसे दंगों में गोलियां, बम बदन में घुसवाएं हैं. मुझे झूठ और मीठा बोलने की क्या पड़ी है? मैंने सच कहा है. जो शायद काफी को कड़वा लग सकता है.” बीते शुक्रवार की घटनाओं से एजेंसियों ने क्या सबक लिया होगा? पूछने पर विक्रम सिंह बोले, “हां क्यों नहीं लिया होगा. मैं दावे के साथ कह सकता हूं राज्य पुलिस और केंद्रीय जांच व खुफिया एजेंसियां सामंजस्य के पैमाने पर घटना के पहले से ही एक हो चुकी होंगी. जो कसर बाकी कहीं रही होगी वो शुक्रवार की घटना के बाद पूरी हो गई होगी. दरअसल प्रयागराज, रांची, पश्चिम बंगाल जैसी पत्थरबाजी, बलवा, दंगा-फसाद की जो घटनाएं आमजन की नजर में सिर्फ सरकारी मशीनरी को कोसने भर का उपाय होती है, वही घटनाएं किसी भी राज्य के स्थानीय खुफिया तंत्र, पुलिस और केंद्रीय खुफिया व जांच एजेंसियों के लिए सबक भी होती हैं.”
बकौल विक्रम सिंह, “तीन और 10 जून को जो कुछ भी हुआ वह सब कुत्सित मानसिकता का द्योतक है. वो सब तयशुदा प्रोग्राम था. एक रणनीति के तहत अब अगर किसी ने उसकी पुनरावृत्ति करने की कोशिश की तो, अब पत्थरबाजों के ऊपर इस बार उनसे भी ज्यादा खतरनाक तरीके से जवाब देने की तैयारियां एजेंसियां कर चुकी होंगी. जहां तक बात पिछली दो घटनाओं में बलवाइयों द्वारा हल्का फुल्का पथराव-आगजनी की है तो, यह सब झूट है. वे सब अपनी फुल तैयारी के साथ आए थे. सामने मोर्चे पर जब उन्हें लगा टिक नहीं पाएंगे अति करी तो मारे भी जा सकते हैं. तब उन्होंने पीछे पांव खींचने में ही भलाई समझी होगी. यह मेरा अनुमान है. जरूरी नहीं कि मौजूदा समय में जो एजेंसियां या राज्य की पुलिस इन हालातों से जूझती है. वो मेरे मत से सहमत हो. मगर 36 साल आईपीएस की नौकरी करने के दौरान मैंने उतना तो सीखा है कि जितना अभी भूला नहीं होऊंगा पुलिसिंग को.”