कर्नाटक एससी-एसटी आरक्षण: मुख्यमंत्री बोम्मई को इससे फायदे भी होंगे और नुकसान भी

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Basavaraj Bommai Pti

रामकृष्ण उपाध्याय

कर्नाटक की बसवराज बोम्मई सरकार ने अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षण बढ़ाने का “ऐतिहासिक” निर्णय लिया है. वह भी सात दशकों में पहली बार. ध्यान रहे कि अगले छह महीने बाद कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, जहां बोम्मई सरकार की जीत-हार दांव पर लगी हुई है. सवाल यह है कि क्या इससे बीजेपी को फायदा होगा या फिर इसका कोई उलटा नतीजा होगा?

एससी के लिए आरक्षण को 15% से बढ़ाकर 17% और एसटी के लिए 3% से 7% करने के लिए कैबिनेट की मंजूरी के बाद, राज्यपाल थावरचंद गहलोत ने अध्यादेश जारी कर दिया. अब बोम्मई सरकार को उम्मीद है कि विधानसभा में भी इसे मंजूरी मिल जाएगी. नवंबर-दिसंबर में बेलगावी में मौजूदा विधानसभा का आखिरी सत्र होना है.

बोम्मई ने घोषणा की, “यह राज्य सरकार की ओर से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के लिए दीपावली गिफ्ट है. अध्यादेश को विधानमंडल के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किया जाएगा.” इस बीच घबराई हुई कांग्रेस ने भी इसे पारित कराने में मदद करने की बात कही है.

यदि विधेयक ‘कानून’ बन जाता है तो कर्नाटक उन नौ अन्य राज्यों में शामिल हो जाएगा, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले की अवहेलना की है जिसमें भारत की कुल आबादी के 50% से अधिक आरक्षण न दिए जाने का प्रावधान है. ध्यान रहे कि 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट की 9 सदस्यीय संविधान पीठ ने यह फैसला दिया था. बीते तीन दशकों तक समय की कसौटी पर यह फैसला खरा उतरा है, लेकिन इस फैसले के समक्ष कई चुनौतियां भी पैदा हुई हैं. मौजूदा नियमों के अनुसार, एससी को 15%, एसटी को 7.5% और ओबीसी को 27% (अधिकतम) आरक्षण मिलता है, जो कि कुल 49.5% होता है.

आरक्षण की पहेली

आरक्षण के सवाल और “समाज के दबे-कुचले वर्गों” के लिए इसकी सीमा पर संविधान सभा में बहुत गरमा-गरम बहस हुई थी. अधिकांश सदस्य इस बात से सहमत थे कि कुछ समुदायों द्वारा झेले गए “ऐतिहासिक अन्याय” को ठीक करने के लिए आरक्षण की आवश्यकता है, लेकिन सबसे विवादास्पद मुद्दा आरक्षण की अवधि को लेकर था.

सभा ने 60 वर्षों के लिए आरक्षण का एक प्रस्ताव अपनाया. संविधान के अनुच्छेद 334 में कहा गया, “अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए आरक्षण संविधान लागू होने की तारीख से 60 वर्ष की समाप्ति के बाद प्रभावी नहीं होगा.” इस हिसाब से आरक्षण को 25 जनवरी 2010 को समाप्त हो जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. तब से, इसे 10-10 वर्षों के लिए बढ़ाया जा चुका है.

इतना ही नहीं. आरक्षण नीति के कार्यान्वयन में ढिलाई बरती गई. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को अधिक शक्ति देने वाले कम से कम तीन संवैधानिक संशोधन हुए. 77वां संशोधन (1995) अनुच्छेद 16 (4ए) में लाया गया ताकि राज्य सरकारों को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों को प्रमोशन देने के लिए सशक्त बनाया जा सके. इसके मुताबिक “यदि राज्य को लगता है कि एससी-एसटी समुदाय का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है.” तो वह ऐसा कानून बना सकती है. 81वें संशोधन (2000) ने अनुच्छेद (4बी) पेश किया, जिसमें कहा गया है कि “किसी विशेष वर्ष के अधूरे एससी/एसटी कोटा को अगर अगले वर्ष के लिए बढ़ाया जाएगा तो इसे अलग से लागू किया जाएगा और उसे उस वर्ष की नियमित वैकेंसी के साथ नहीं जोड़ा जाएगा.” 85वें संशोधन में प्रावधान है कि “अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सरकारी कर्मचारियों के लिए प्रमोशन में आरक्षण ‘परिणामी वरिष्ठता (Consequential seniority)’ के साथ जून 1995 से पहले लागू किया जा सकता है.”

अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण, जो पहले से ही कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे “अगड़े” राज्यों में प्रचलित था, पर केंद्र और उत्तर भारतीय राज्यों में काफी विवाद हुआ. ध्यान रहे कि वीपी सिंह सरकार द्वारा 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के बाद ओबीसी आरक्षण लागू हुआ.

ऐसा लगता है कि संविधान सभा को पता था कि लंबे समय तक आरक्षण से योग्यता का मुद्दा हाशिए पर जा सकता है और इसके परिणामस्वरूप प्रतिभाशाली युवाओं का दूसरे देशों में पलायन हो सकता है. इसलिए, संविधान के अनुच्छेद 335 में सावधानी से उल्लेख किया गया है कि, “एससी/एसटी के दावे प्रशासन की दक्षता के अनुरूप होंगे.” लेकिन, जाहिर तौर पर, राजनीतिक मजबूरियों की वजह से यह केवल एक सोच बनकर रह गई है क्योंकि राजनेता अपने वोट बैंक को खोना नहीं चाहते.

‘क्रीमी लेयर’ की ताकत

आरक्षण न केवल एक स्थायी विशेषता बन गया है, बल्कि क्रीमी लेयर के मुद्दे को भी नजरअंदाज किया गया है. जबकि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर बार-बार “सलाह” और “निर्देश” दिए हैं.

साल 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर की परिभाषा तय करने की कोशिश की. ओबीसी के व्यक्ति जो आईएएस, आईपीएस और अखिल भारतीय सेवाओं जैसी उच्च सेवाओं में पदों पर हैं और सामाजिक उन्नति और आर्थिक स्थिति के उच्च स्तर तक पहुंच गए हैं या बड़े किसान या संपत्ति से मोटी आय वाले लोगों को क्रीमी लेयर के रूप में पहचाना गया. लेकिन, न तो राज्यों और न ही केंद्र सरकार ने क्रीमी लेयर को अधिसूचित करने की जहमत उठाई, जिससे सुप्रीम कोर्ट के नाराज जस्टिस रोहिंटन एफ नरीमन ने दुख जताते हुए कहा “कुल मिलाकर, पिछड़ी जाति के क्रीमी लेयर द्वारा आरक्षण का फायदा उठाया जाता है. इस प्रकार कमजोरों में सबसे कमजोर हमेशा कमजोर रहते हैं और भाग्यशाली क्रीमीलेयर फायदा उठाते हैं.”

तमिलनाडु ने कदम बढ़ाया

यह तमिलनाडु था जिसने 1993 में सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण को बढ़ाकर 69% करके इंदिरा साहनी फैसले को पहली चुनौती दी थी. जयललिता के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने पीवी नरसिम्हा राव सरकार पर दबाव डाला कि वह आरक्षण के मसले को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल करे, ताकि इसे अदालतों के दायरे से बाहर रखा जा सके. तमिलनाडु में अनुसूचित जाति के लिए 18%, एसटी के लिए 1%, अति पिछड़ा वर्ग के लिए 20% और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 30% आरक्षण है. ओबीसी कोटे में मुसलमानों के लिए 3.5% शामिल है.

इसके बाद कई दूसरे राज्यों ने इस दिशा में कदम बढ़ाया. हरियाणा और बिहार ने आरक्षण को 60% तक बढ़ा दिया, जिसमें आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10% शामिल है, जिसे 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा पेश किया गया था. अन्य राज्यों में छत्तीसगढ़ ने आरक्षण को बढ़ाकर 82%, मध्यप्रदेश ने 73% कर दिया. राजस्थान में 64%, महाराष्ट्र में 63%, तेलंगाना में 62%, केरल में 60% और गुजरात में 59% आरक्षण है.

बढ़े हुए आरक्षण के झटके का सामना करते हुए, देशभर के हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने अधिकांश निर्णयों पर रोक लगा दी. तीन दशक से अधिक समय के बाद भी तमिलनाडु के कानून की भी जांच की जा रही है. मोटे तौर पर, सुप्रीम कोर्ट का हुक्म अभी भी कायम है, लेकिन केवल एक छोटे से धागे के रूप में, जो किसी भी क्षण टूट सकता है.

आरक्षण को लेकर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के कदम ने आग में घी का काम किया. 2019 में आरक्षण के दायरे में न आने वाले लोगों के लिए केंद्र ने मौजूदा 50% कोटा के अलावा, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10% आरक्षण का प्रावधान किया. इसके लिए सरकार ने संविधान में 103वां संशोधन पेश किया और पारित किया. केंद्र सरकार ने इस प्रावधान को केंद्र सरकार की नौकरियों में लागू करना शुरू कर दिया है, हालांकि राज्यों को इसे शामिल करने या न करने का विकल्प दिया गया है.

जैसा कि उम्मीद की जा रही थी, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष ईडब्ल्यूएस कोटा को चुनौती देने वाली कई याचिकाएं दायर की गई हैं और मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली एक संविधान पीठ ने मामले की सुनवाई शुरू कर दी है, हालांकि उसने अभी तक स्टे देने से इनकार कर दिया है. कर्नाटक ने अभी तक ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर कोई पक्ष नहीं लिया है.

केंद्र के फैसले का बचाव करते हुए तत्कालीन अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने इस साल की शुरुआत में अदालत को बताया कि संविधान की प्रस्तावना कमजोर वर्गों के उत्थान की बात करती है. नौकरियों, शिक्षा में आरक्षण के माध्यम से और कल्याणकारी उपायों से ऐसा किया जा सकता है. उन्होंने 10% कोटा का बचाव करते हुए कहा, “50% आरक्षण पवित्र नहीं है” और इसे संशोधित किया जा सकता है.

8 नवंबर से जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस यूवी ललित की जगह भारत के मुख्य न्यायाधीश होंगे. ऐसे में ईडब्ल्यूएस कोटा मामले की सुनवाई करने वाली पीठ के पुनर्गठन की संभावना है.

कर्नाटक में प्रतिस्पर्धा

जहां तक कर्नाटक का सवाल है, एससी और एसटी के लिए आरक्षण बढ़ाने का निर्णय कई अन्य समुदायों को प्रोत्साहित करेगा. पंचमशाली लिंगायत, जो लिंगायतों में सबसे शक्तिशाली संप्रदाय है, दो साल से आंदोलन कर रहे हैं कि आरक्षण का लाभ उठाने के लिए इस समुदाय को ‘3बी’ उपसमूह से निकालकर ‘2ए’ में शामिल किया जाना चाहिए.

लेकिन इसे अन्य पिछड़ा वर्ग से कड़ा विरोध मिला है, जिन्हें डर है कि लिंगायत आरक्षण के बड़े हिस्से को खत्म कर देंगे. प्रभावशाली कुरुबा, जो वर्तमान में ‘2ए’ श्रेणी के अंतर्गत हैं, चाहते हैं कि उन्हें एसटी माना जाए और उन्हें 7.5% आरक्षण दिया जाए.

मुख्यमंत्री बोम्मई, जो हर समुदाय को आश्वासन देते रहे हैं कि वह “उनकी मांगों पर गौर करेंगे”, अगले साल अप्रैल या मई में होने वाले विधानसभा चुनावों में कठिन हालात का सामना करने वाले हैं. एससी और एसटी कोटा बढ़ाने फैसला कोर्ट में खारिज हो सकता है. जिससे इन समुदायों को यह महसूस होगा कि यह केवल “चुनावी हथकंडा” था. दूसरी ओर, लिंगायत, जिन्होंने हमेशा बीजेपी का समर्थन किया है, अपनी नाराजगी व्यक्त कर सकते हैं. आरक्षण के साथ खेलना एक ऐसा जुआ है जिसके अपने जोखिम और फायदे हैं और यह तो वक्त ही बताएगा कि बीजेपी ने सही फैसला लिया है या नहीं.

(डिस्क्लेमर: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं. इस लेख के विचार और तथ्य TV9 के रुख का प्रतिनिधित्व नहीं करते.)

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