क्षेत्रीय क्षत्रपों और राष्ट्रीय दलों के समर्थन के बिना क्या मैदान में टिक पाएंगे KCR? पढ़ें इनसाइड स्टोरी

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अपनी रीब्रांडेड भारत राष्ट्र समिति (BRS) के साथ तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) के संस्थापक के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) अपने घरेलू मैदान की रक्षा में बीजेपी के हमलों खिलाफ निहत्थे साबित हो सकते हैं. क्योंकि लोगों के कल्याण की बात करने वाला टीआरएस प्रमुख का बहुप्रचारित ‘तेलंगाना विकास का मॉडल’ का बीजेपी के धार्मिक ध्रुवीकरण और भावनात्मक राष्ट्रवाद से मेल खाने की संभावना कम ही है. सच्चाई यह है कि तेलंगाना सेंटीमेंट का क्षेत्रीय नारा ही केसीआर के लिए अपने प्रतिद्वंद्वियों को हराने के लिए एक जीवन रेखा और एक सदाबहार हथियार बना है. इसी नारे की बदौलत वे अलग राज्य के लिए चले आंदोलन के दौरान एक देवता के रूप में प्रतिष्ठित हो पाए. राव ने न केवल तेलंगाना के लिए एक अलग राज्य की मांग को पहचाना बल्कि क्षेत्रीय गौरव व स्वाभिमान की भावना का उपयोग करके उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ चुनावी जीत हासिल की. कुल मिलाकर, क्षेत्रीय भावना ही उनकी पहचान बन चुकी है. ध्यान रहे कि 2023 में तेलंगाना में विधानसभा चुनाव होने हैं.

बीआरएस, जिसे 5 अक्टूबर को हैदराबाद में एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में बड़ी धूमधाम के साथ लॉन्च किया गया था, ने मौन प्रश्न खड़े कर दिए हैं. क्या यह केसीआर को विधानसभा चुनावों की प्रारंभिक परीक्षा पास करने में मदद करेगा? आम चुनाव तो बाद की बात है. क्या केसीआर एनटीआर की राह पर चल सकते हैं? केसीआर का दावा है कि वे टीडीपी के संस्थापक और अपने गुरु एनटी रामाराव (एनटीआर) को दोहराएंगे. उनका दावा है कि अपनी राष्ट्रीय पार्टी के लॉन्चिंग कार्यक्रम को गैर-बीजेपी विपक्षी नेताओं के एक सम्मेलन में बदलकर बीजेपी विरोधी राजनीति में एक छाप छोड़ी है. ध्यान रहे कि एनटीआर 1983 में अपने जन्मदिन के अवसर पर विपक्षी नेताओं के एक सम्मेलन का आयोजन कर कांग्रेस विरोधी मंच बनाने में सफल हुए थे.

कांग्रेस विरोधी राजनीति में एक बड़ा बदलाव माना जाता है

लेकिन एनटीआर का शो बेजोड़ था. इसमें वामपंथी, दक्षिणपंथी और यहां तक कि मध्यमार्गी दलों ने भाग लिया था. इनमें बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी, तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन, जम्मू-कश्मीर का प्रतिनिधित्व करने वाले नेशनलिस्ट कॉन्फ्रेंस पार्टी (एनसीपी) के फारूक अब्दुल्ला, जनता दल के बीजू पटनायक, एचएन बहुगुणा, सीपीआई (एम) के दिग्गज हरकिशन सिंह सुरजीत और कर्नाटक से जनता पार्टी के रामकृष्ण हेगड़े शामिल थे. विजयवाड़ा सम्मेलन ने उस समय कांग्रेस शासन के लिए एक संभावित विकल्प के रूप में संयुक्त मोर्चे के बीज बोए. एनटीआर के विपक्षी दलों के एकीकरण की वजह से ही 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चे की एक गैर-कांग्रेसी सरकार बन पाई. जनता पार्टी सरकार (1975-77) के विफल प्रयोग के बाद इस सम्मेलन को कांग्रेस विरोधी राजनीति में एक बड़ा बदलाव माना जाता है.

केसीआर सरकार ने सत्ता विरोधी लहर को जन्म दिया है

तेलंगाना में अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान केसीआर सरकार ने सत्ता विरोधी लहर को जन्म दिया है. ऐसे में केसीआर की हैट्रिक बनाने की संभावनाओं को खतरा है. कई मुद्दे ऐसे हैं जो सत्ता विरोधी लहर पैदा कर रहे हैं. इनमें उनके परिवार का शासन, शासन में भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार, केसीआर तक पहुंच में कमी और चुनावी वादों को पूरा करने में उनकी विफलता के आरोप शामिल हैं. 2018 के पिछले चुनावों में चंद्रशेखर राव क्षेत्रीय गौरव को जगाकर बच गए थे और नायडू के नेतृत्व वाले महागठबंधन के खिलाफ विजयी हुए. क्या केसीआर आने वाले चुनाव में बीजेपी के खिलाफ अपनी लड़ाई में अपने कल्याणकारी नारे के साथ कोई चुनावी जादू कर सकते हैं? इस चुनाव में अलग-अलग नैरेटिव देखने की उम्मीद है, बीजेपी धार्मिक भावना के मुद्दे को उछालेगी जबकि केसीआर रोजी-रोटी के मुद्दों को.

क्या केसीआर अपने वादे पर खरे उतरेंगे?

केसीआर का बीजेपी मुक्त भारत नारा न केवल महत्वाकांक्षी लगता है, बल्कि उनके कद से भी बड़ा है. नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में बीजेपी ने अभूतपूर्व जीत हासिल करते हुए कांग्रेस के एकाधिकार को तोड़ा और 2019 के चुनावों में संसद में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. इसके अलावा, यह अखिल भारतीय पहुंच रखती है. 31 में से 17 राज्यों में इस पार्टी की सरकार है. दूसरी ओर, 17 लोकसभा सीटों के साथ एक नए नवेले संगठन और भरोसेमंद व संभावित सहयोगियों की कमी के बीच केसीआर एक छोटे राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो जोनाथन स्विफ्ट की परी कथा गुलिवर्स ट्रेवल्स के एक काल्पनिक किरदार लिलिपुट की तरह दिखाई देते हैं.

बीआरएस का लॉन्चिंग सेशन इस बात का सबूत है कि चंद्रशेखर राव बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए के खिलाफ अकेली लड़ाई लड़ रहे हैं, क्योंकि इसमें कर्नाटक के जेडीएस के एचडी कुमारस्वामी को छोड़कर कोई बड़े विपक्षी नेता ने भाग नहीं लिया. वास्तव में, जेडीएस कांग्रेस और बीजेपी दोनों के साथ सत्ता साझा करने के ट्रैक रिकॉर्ड के साथ एक कमतर भरोसेमंद सहयोगी है. राष्ट्रीय राजनीति में खुद को लॉन्च करने से पहले राव ने पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी, तमिलनाडु के एमके स्टालिन, केरल में वाममोर्चा सरकार का नेतृत्व कर रहे पिनाराई विजयन, आप मुखिया अरविंद केजरीवाल, और महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार से समर्थन मांगा था.

क्या केसीआर कांग्रेस को बाहर रखने का जोखिम उठा सकते हैं?

जानकारों का मानना है कि केसीआर का बीजेपी और कांग्रेस के खिलाफ तीसरा विकल्प बनाने का कदम एक ऐसे देश में अव्यावहारिक लगता है जहां धर्मनिरपेक्ष साख रखने वाली सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस संगठन और कैडरों के संदर्भ में अखिल भारतीय उपस्थिति रखती है. अधिकांश क्षेत्रीय क्षत्रप या तो कांग्रेस के साथ जुड़ रहे हैं या फिर प्रधानमंत्री पद की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा कर रहे हैं. इसलिए केसीआर अपने अभियान में अकेले नजर आ रहे हैं. फाउंडेशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स के संस्थापक और लोक सत्ता ते नेता जेपी नारायण ने कहा था कि भारत द्विध्रुवीय राजनीति का घर है और यहां किसी तीसरे पक्ष के लिए राजनीति करने की बहुत कम गुंजाइश है.

केसीआर विपक्षी वोटों को विभाजित करके बीजेपी को ही फायदा पहुंचाएंगे

तेलंगाना कांग्रेस के सीनियर नेता मर्री शशिधर रेड्डी ने News9 से कहा, “यह असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM बीजेपी के साथ जो कर रही है, उसका विस्तार है.” इसका मतलब है कि केसीआर विपक्षी वोटों को विभाजित करके बीजेपी को ही फायदा पहुंचाएंगे. केसीआर के कदम का उपहास करते हुए तेलंगाना बीजेपी के प्रवक्ता एनवी सुभाष ने कहा कि मोदी सरकार ने विपक्ष के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ा है और केसीआर का बीआरएस प्रासंगिक नहीं होगा. जब कांग्रेस सहित कई राष्ट्रीय दल अपने घटते वोटों और सीटों के साथ क्षेत्रीय दलों की स्थिति में आ गए हैं, तो केसीआर का नवजात संगठन कैसे बच सकता है.

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