क्या है हिंदुस्तानी जांच एजेंसियों के पास मौजूद ‘केस डायरी’ और उसकी अहमियत?

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अमूमन जब कभी भी कहीं किसी क्राइम तफ्तीश का जिक्र आता है, तो पुलिस हो या फिर कोई और जांच एजेंसी. हर किसी मामले में बार-बार एक शब्द सुना जाता है ‘केस-डायरी’. यह शब्द जांच अधिकारी, जांच एजेंसी से लेकर कोर्ट-कचहरी और वकीलों में खासा प्रचलित है. आइए जानते हैं कि आखिर क्या है ‘केस डायरी’? किस-किसकी नजर में और कितनी अहमियत रखती है ‘केस डायरी’?

केस डायरी को अमूमन इसी नाम से ज्यादा आसानी और बेहतरी से जानते-पहचानते हैं. अन्यथा हिंदी में इसे ‘अभियोग दैनिकी’ भी कहते हैं, अभियोग दैनिकी चूंकि हद का कठिन शब्द है. लिहाजा अब यह दस्तावेज ‘केस डायरी’ के नाम से ही सिपाही से लेकर जज तक समझते हैं. दरअसल यह एक ऐसा अहम पुलिसिया कहिए या फिर कानूनी दस्तावेज है, जिसकी तमाम बाकी कानूनी दस्तावेजों की भीड़ में अलग ही पहचान होती है. केस डायरी की खासियत होती है कि उसमें ब्योरा दर्ज करने का कानूनन ह़क सिर्फ और सिर्फ, किसी भी आपराधिक मामले के ‘तफ्तीशी अफसर’ को ही होता है.

क्या है केस डायरी?

‘केस डायरी’ वो दस्तावेज है जो जांच अधिकारी को मुकदमे की सुनवाई के दौरान कोर्ट में पेश करना अनिवार्य होता है. पहले तो जांच अधिकारी की खुद की जिम्मेदारी बनती है कि वो केस डायरी कोर्ट में दाखिल करे. अगर ऐसा कोई तफ्तीशी नहीं करता है तो कोर्ट उससे केस डायरी खुद भी तलब करने का कानूनन ह़क रखती है. केस डायरी को अगर और भी ज्यादा गहराई से जानना चाहें तो, सीआरपीसी (दंड प्रक्रिया संहिता) की धारा-1973 और 1972 के तहत मुकदमे के जांच अधिकारी को. केस-डायरी लिखने का कानूनी अधिकार दिया गया है.

केस डायरी लिखने के कई फायदे

किसी भी मुकदमे की तफ्तीश में रोजाना दिन भर की जो भी गतिविधि लम्हा-लम्हा पड़ताली अफसर द्वारा देखी जाती है, उसी से संबंधित ब्योर जांच अधिकारी केस डायरी में दर्ज करता है. केस डायरी लिखने के फायदे कई और नुकसान ‘जीरो’ है. केस डायरी लिखने का सबसे बड़ा फायदा मुकदमे में सुनवाई के दौरान, जांच अधिकारी को उसके द्वारा की जा चुकी तफ्तीश के दौरान हर दिन की जानकारी एक जगह पर आसानी से उपलब्ध हो जाना है. क्योंकि मुंहजुबानी किसी भी मुकदमे की लंबी तफ्तीश का हर बिंदु याद रख पाना जांच अधिकारी ही क्या, किसी को भी न-मुमकिन है. इस काम में केस डायरी जांच अधिकारी के लिए बहुत मददगार साबित होती है. विशेषकर तब जब कोई जांच अधिकारी दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 12 के तहत किसी तफ्तीश को अंजाम दे रहा होता है.

केस डायरी को कानूनी दस्तावेज नहीं

कोर्ट में मुकदमा दाखिल होने के बाद जब-जब जो-जो जांच अधिकारी अपनी मजबूत-पुख्ता केस डायरी के साथ पहुंचता है, मामले की सुनवाई कर रही अदालत की नजरों में केस डायरी में दर्ज ब्योरे के अनुपात में ही, जांच अफसर की छवि बनती है. केस डायरी में दर्ज ब्योरा ही साबित करता है कि मुकदमे का पड़ताली अफसर किस हद तक जिम्मेदारी से केस से संबंधित जानकारियां एकत्रित करके अदालत में पहुंचा है. भले ही क्यों न केस डायरी की अहमियत कोर्ट में मुकदमे के ट्रायल के दौरान ‘शून्य’ ही होती हो. कोर्ट किसी भी मुकदमे में केस डायरी को कानूनी दस्तावेज के बतौर शामिल नहीं करती है. इसके बाद भी मगर ‘केस डायरी’ कोर्ट द्वारा कभी भी जांच अधिकारी से तलब की जा सकती है. यह अलग बात है कि केस डायरी में दर्ज मजमून-मसौदे के आधार पर कोर्ट किसी को दोषी या दोषमुक्त साबित नहीं कर सकती है.

सबूत नहीं होती केस डारी

‘केस डायरी’ एक निर्धारित प्रारूप पर ही लिखी-भरी जाती है. मोहम्मद अन्कूस एवं अन्य बनाम पब्लिक प्रासीक्यूटर हाई कोर्ट ऑफ़ आंध्र प्रदेश, AIR 2010 SC 566 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस डी. के. जैन एवं जस्टिस आर. एम. लोढ़ा की बेंच ने दोहराया भी था कि, ‘कोई भी अदालत ऐसे मामले की केस डायरी की मांग कर सकती है एवं इस तरह की डायरी का उपयोग कर सकती है लेकिन, मामले में सबूत के रूप में नहीं, बल्कि इस तरह की जांच या परीक्षण में सहायता लेने के लिए.’ केस डायरी एक आधिकारिक दस्तावेज तो है मगर इसे कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है. सीधे और सपाट शब्दों में कह सकते हैं कि, केस डायरी सिर्फ और सिर्फ किसी भी जानकारी को याद रखने, और जांच अधिकारी की मदद के लिए होती है.

जांच पूरी होने तक केस डायरी रखना जरूरी

सिद्धार्थ बनाम बिहार राज्य (2005 Cri. LJ 4499) के मामले में सुप्रीम कोर्ट जस्टिस के. जी. बालाकृष्णन एवं जस्टिस बी. एन. श्रीकृष्णा की पीठ ने भी दोहराया था कि, पड़ताली अधिकारी को जांच पूरी होने तक, केस डायरी को अपने साथ रखनी होती है. जिसमे वह किसी मामले की दिन प्रतिदिन की गतिविधियों (जांच से सम्बंधित) दर्ज करेगा. दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 172 के तहत 3 खंड मौजूद हैं जो, डिटेल में केस डायरी की जरूरत-अहमियत और उसके उपयोग को परिभाषित करते हैं. धारा-172 के पहले खंड में लिखा है कि मुकदमे के जांच अधिकारी को, पड़ताल की रोजाना की स्थिति को, इस डायरी में लिखना होगा.

अदालतों के पास केस डायरियों को मांगने की शक्ति

इसी तरह धारा 172 (1) के मुताबिक प्रत्येक पुलिस अधिकारी को जो इस अध्याय के अधीन मुकदमे की पड़ताल करता है, जांच में की गई अपनी कार्यवाही को दिन-प्रतिदिन केस डायरी में लिखेगा, दूसरे खंड में दर्ज ब्योरा बताता है कि मुकदमे से संबंधित आपराधिक अदालतों के पास, केस डायरियों को मांगने की शक्ति है. डायरी का उपयोग केवल एक जांच में पड़ताली की सहायता करने के लिए किया जा सकता है. किसी भी मुकदमे में केस डायरी सबूत नहीं हो सकती है. धारा 172 (2) के मुताबिक कोई दंड न्यायालय पुलिस डायरी को मांग सकता है.केस डायरियों को मामले में साक्ष्य के रूप में तो नहीं हां, ऐसी जांच में अपनी सहायता के लिए उपयोग में जांच अधिकारी केस डायरी की मदद ले सकता है. तीसरे खंड के मुताबिक यह एक नकारात्मक सा खंड है जिसके मुताबिक, न तो आरोपी व्यक्ति और न ही उसका कोई प्रतिनिधि, केस-डायरी में दर्ज विवरण की मांग कर सकता है.

‘केस डायरी’ याददाश्त पुख्ता करने का एक सटीक दस्तावेज

भले ही डायरी को अदालत में संदर्भित क्यों न किया गया हो. फिर भी किसी मुलजिम या बाहरी व्यक्ति को केस डायरी देखने-मांगने का कानूनी ह़क नहीं है. इसी तरह से धारा 172 (3) के मुताबिक, न तो अभियुक्त और न ही उसके सहयोगी पक्ष केस डायरी के हकदार होंगे, न कोई मुलजिम या अन्य शख्स केस डायरी इसलिए देखने का हक पा लेगा क्योंकि वो मामले के जांच अधिकारी द्वारा लिखी जाती है. और केस डायरी को कोर्ट में भी विशेष अहमियत दी जाती है. केस डायरी सिर्फ मुकदमे के जांच अधिकारी को अपनी याददाश्त पुख्ता करने का एक सटीक दस्तावेज है. यदि कोर्ट उन्हें ऐसी पुलिस अधिकारी की बातों का खंडन करने के प्रयोजन के लिए उपयोग में लाता है तो, भारतीय साक्ष्य अधिनियम-1872 की, यथास्थिति धारा-161 या धारा 145 के उपबंध लागू होंगे.

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