मुकाम सिंह किराड़े
चुनाव सामने आते ही काँग्रेस एक बार फिर आदिवासी हितों की बात कर रही है । जबकि सत्य यह है कि काँग्रेस ने सदैव आदिवासी हितों की उपेक्षा की है । एक बार तो जोड़ तोड़ से आदिवासी मुख्यमंत्री को अपदस्थ किया और अपनी सरकार बनाई जबकि दो बार मुख्यमंत्री पद के लिये आदिवासी समाज के नेता की नैसर्गिक दावेदारी छीनी । स्वाधीनता संघर्ष में जिन आदिवासियों ने बलिदान दिया उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया सो अलग।
भारत का आदिवासी समाज सदैव राष्ट्र और सांस्कृतिक मूल्यों केलिये समर्पित रहा है । ऐसा कोई काल खंड, कोई विदेशी हमला नहीं जब आदिवासी समाज ने अपनी पूरी शक्ति से प्रतिकार न किया हो । आदिवासी समाज को कभी सत्ता की चाहत नहीं वह तो स्वत्व और स्वाभिमान से संपन्न भारत राष्ट्र के लिये समर्पित रहा । किन्तु अफसोस तब होता है जब आदिवासी समाज के नैसर्गिक अधिकार को छीना जाता है । ऐसा काँग्रेस के राज में अक्सर हुआ । देश और प्रदेश के इतिहास में ऐसी घटनाएँ दर्ज हैं । स्वतंत्रता के बाद देश की बागडोर काँग्रेस के हाथ आई । आदिवासी समाज ने काँग्रेस को स्वदेशी सत्ता के कारण पूरा समर्थन दिया, अपना प्रति पूरा विश्वास जताया था ।
आशा की जा रही थी कि स्वतंत्रता के बाद आई स्वदेशी सत्ता में आदिवासी बंधुओं को ऊचित सम्मान और स्थान मिलेगा । इसीलिए आदिवासी बंधुओं ने मध्यप्रदेश ही नहीं अपितु भारत भर में काँग्रेस को बिना शर्त पूर्ण समर्थन दिया था । देश भर में आदिवासी क्षेत्रों से काँग्रेस उम्मीदवार एकतरफा ता करते थे । किन्तु आदिवासी समाज की भावना का काँग्रेस ने कभी सम्मान नहीं किया । और न आदिवासी समाज को वह अवसर दिया जिसके लिये वह वास्तविक अधिकारी रहे । सामाजिक और राजनैतिक दोनों दिशाओं में आदिवासी समाज के साथ अन्याय हुआ है ।
यदि हम मध्यप्रदेश के राजनैतिक इतिहास की बात करें तो कमसेकम तीन ऐसे उदाहरण हैं जब आदिवासी समाज से नेतृत्व छीना गया । ये तीनों घटनाएँ उन दिनों की है जब वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य भी मध्यप्रदेश का अंग हुआ करता था ।पहली घटना वर्ष 1969 की है । उन दिनों मध्यप्रदेश में संयुक्त विधायक दल की सरकार थी । उस सरकार में सबसे बड़ा घटक भारतीय जनसंघ का था और दूसरा घटक उन विधायकों का था जो काँग्रेस छोड़कर आये थे । इस संविद सरकार के पहले मुख्यमंत्री गोविन्द नारायण सिंह थे । वे भी काँग्रेस छोड़कर आये थे । किन्तु बाद में स्वर्गीय राजमाता विजयाराजे सिंधिया की पहल और जनसंघ के समर्थन से आदिवासी राजा नरेश चंद्र सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया ।
यह बात काँग्रेस को सहन न हुई । विभिन्न काँग्रेस नेताओं ने जोड़ तोड़ की और काँग्रेस छोड़कर आये कुछ विधायकों को तोड़कर वापस काँग्रेस में ले गये और सरकार गिरा दी । इस प्रकार केवल तेरह दिन में ही आदिवासी नेतृत्व के हाथ से मुख्यमंत्री पद चला गया । इस जोड़तोड़ में महत्वपूर्ण भूमिका उस समय के सक्रिय विधायक जो आगे चलकर 1980 में मुख्यमंत्री भी बने अर्जुन सिंह की थी । इसका उल्लेख अर्जुनसिंह ने स्वयं अपनी आत्मकथा में किया है । इस घटनाक्रम का राजा नरेशचंद्र की भावनाओं को इतना आघात लगा कि उन्होंने स्वयं को राजनैतिक सक्रियता से अलग कर लिया । बाद में समाज के आग्रह पर उनके परिवार की बेटियाँ आगे आईं।
दूसरा अवसर 1980 का है । तब जनता पार्टी को हराकर काँग्रेस को बहुमत मिला था । आदिवासी समाज से संबंधित शिवभानु सोलंकी काँग्रेस विधायक दल के नैसर्गिक दावेदारी थी । त के बाद काँग्रेस विधायक दल की बैठक इसी भवन में हुई जो आज मुख्यमंत्री निवास के रूप में जाना जाता है । इस बैठक के लिये केंद्रीय प्रतिनिधि के रूप कमलनाथ भी आये थे ।
इस बैठक में यह स्पष्ट हो गया था कि विधायकों के बहुमत का सद्भाव भी शिवभानु के साथ था । (ऐसा उस समय के विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित भी हुआ था ।) किन्तु शिवभानु को अवसर न मिल सका और मुख्यमंत्री पद अर्जुन सिंह के पास चला गया ।तीसरी घटना 1993 की है । तब भारतीय जनता पार्टी को पराजित कर काँग्रेस पुनः सत्ता में आई थी । काँग्रेस विधायक दल के नेता के रूप में जमना देवी की दावेदारी सशक्त थी । अनेक वरिष्ठ नेताओं ने भी उनका समर्थन किया था ।
यह विचार बन गया था कि जमुनादेवी के रूप में दो संदेश दिये जा सकते हैं। एक तो महिला और दूसरा आदिवासी चेहरा। चूँकि मध्यप्रदेश में काँग्रेस ने किसी महिला और आदिवासी को अवसर न दिया था । इस बात को तब काँग्रेस के अनेक वरिष्ठ नेताओं ने भी समर्थन किया था जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री श्यामा चरण शुक्ल का नाम प्रमुख था ।फिर भी जमना देवी को अवसर न मिल न मिल पाया और दिग्विजयसिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया ।
जबकि दिग्विजयसिंह तो विधायक भी नहीं थे । उनके गृह नगर राघोगढ़ से उनके अनुज लक्ष्मणसिंह विधायक थे । दिग्विजयसिंह पहले मुख्यमंत्री बने फिर उनके अनुज से स्तीफा दिया और उपचुनाव लड़कर दिग्विजयसिंह विधानसभा सदस्य बने ।ये वो तीन बड़े प्रसंग हैं जो सर्वविदित हैं।इनसे आदिवासी की भावनाएँ कितनी आहत हुईं इसकी कल्पना सहज की जा सकती है । इसके अतिरिक्त काँग्रेस में भंवर सिंह पोर्ते,बसन्त राव उइके, छोटेलाल उइके,मोहन लाल ,दिलीप सिंह भूरिया और कमला देवी की उपेक्षा हुई यह सर्व विदित है ।
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