भोपाल । जाति आधारित राजनीति के किस्से अमूमन हर चुनाव में गाहे-बगाहे सामने आते रहते हैं। लेकिन मध्य प्रदेश की सियासत इस बार नए लक्ष्य को केंद्र में रखकर आगे बढ़ रही है। बीते तीन सालों में प्रदेश की आधी आबादी यानी महिलाओं की जितनी चिंता राजनीतिक दल करते नजर आ रहे हैं, उतनी बीती सरकारों के कार्यकाल में नजर नहीं आई। महिला केंद्रित योजनाओं की घोषणाएं पहले भी होती रही हैं लेकिन इस बार योजनाएं न सिर्फ घोषित हुई बल्कि धरातल पर फलीभूत होती भी नजर आईं। सत्तापक्ष की यह कवायद जब आधी आबादी के बीच खासी चर्चित हुई तो विपक्ष ने भी यही राह पकड़ी और बड़े वादों की फेहरिस्त के साथ मैदान पकड़ लिया। अब चुनाव नजदीक हैं और दोनों दलों के इतने वादे प्रदेश की फिजाओं में तैर रहे हैं कि इनसे पूरा ग्रंथ तैयार किया जा सकता है। लेकिन राजनीति के इस पक्ष को स्वीकार करने के पहले गंभीर चिंतन करने की आवश्यकता है।
नई-नई घोषणाएं कितनी सार्थक होंगी यह हो पड़ताल
घोषणाओं और वादों की हकीकत की पड़ताल करने की आवश्यकता है। आवश्यकता इस बात की भी है कि आधी आबादी के वोट के लिए दी जा रही सुविधाएं और नई-नई घोषणाएं धरातल पर कितनी सार्थक होंगी इसकी भी पड़ताल हो। महिलाओं के प्रतिनिधित्व देने के ईमानदार प्रयास को अमलीजामा पहनाने के बाद इसकी मानीटरिंग भी बेहद बारीकी से होना चाहिए कि नए परिदृश्य में महिलाओं को तय प्रतिनिधित्व मिल रहा है या नहीं। जिन घोषणाओं की बातें राजनीतिक दलों ने की हैं उनके प्रतिनिधि जब वोट के लिए घरों तक पहुंचें तो उनसे ये सवाल अवश्य करें कि चुनावी वादें कहीं चुनाव बीतने के साथ ही गुम तो नहीं हो जाएंगे। आधी आबादी जब तक राजनीति के पूरे सच से रूबरू नहीं होगी तब तक कागजों पर होने वाली घोषणाओं को धरातल पर उतरने का इंतजार समाप्त नहीं होगा।
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