मेरठ से फूटी क्रांति की चिंगारी जल्द ही समूचे उत्तर भारत में फैलकर ज्वाला बन चुकी थी. उस गौरवशाली स्वतंत्रता समर में बहादुर शाह जफर, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा समेत अन्य क्रांतिकारियों ने जमकर अंग्रेजों से मुकाबला किया. एक-एक कर सब विदा होते रहे, किसी ने वीरगति को प्राप्त किया तो कोई कैद कर लिया गया, किसी को देश से ही निर्वासित कर दिया गया. इसके बावजूद एक वीर योद्धा ने अंग्रेजों के खिलाफ अपना संघर्ष जारी रखा, यह वीर कोई और नहीं बल्कि प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के सेनानायक रहे तात्या टोपे थे, जब सैन्य शक्ति नहीं रही तो इन्होंने गोरिल्ला युद्ध अपनाया और लगातार अंग्रेजों को छकाते रहे. Tv9 की इस खास सीरीज में आज हम उसी गौरवशाली योद्धा के शौर्य और जज्बे से परिचित करा रहे हैं.
महाराष्ट्र में हुआ था जन्म
महान सेनानी तात्या टोपे का जन्म 1814 में महाराष्ट्र के पटौदा जिले के येवला गांव में हुआ था, इनका पूरा नाम रामचंद्र पांडुरंग येवलकर था, इनके पिता का नाम पांडुरंग था जो पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबारी थे, वहीं माता का नाम रुक्मिणी बाई था. जब वह चार वर्ष के थे तभी उनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ बिठूर आकर बस गए थे.
ऐसे मिला उपनाम ‘टोपे’
रामचंद्र पांडुरंग को तात्या कहकर बुलाया जाता था, बहादुर होने के साथ-साथ वह बौद्धिक तौर पर भी बड़े सशक्त थे और जो भी काम करते थे वह बहुत ही मेहनत और लगन के साथ पूरा करते थे, पेशवा बाजीराव उनके इस समर्पण से बहुत खुश थे, इसीलिए उन्हें बिठूर किले के मुंशी का काम सौंपा गया. इस काम को भी उन्होंने बखूबी किया. इससे खुश होकर पेशवा ने उन्हें अपनी एक रत्नजड़ित टोपी पुरस्कार स्वरूप दी. इसके बाद रामचंद्र पांडुरंग को तात्या टोपे कहा जाने लगा.
नाना साहब ने बनाया सेनानायक
पेशवा बाजीराव के निधन के बाद नाना साहब ने तात्या टोपे को अपना सेनानायक नियुक्त किया. ये वो दौर था जब अंग्रेजों ने नानाराव को पेशवा की उपाधि देने से इन्कार कर दिया था और वो पेंशन देने से भी मना कर दिया था जो पेशवा बाजीराव द्वितीय को दी जाती थी. इससे नाना साहब क्रोध में थे और अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष की तैयारी कर चुके थे. रणनीति तैयार करने की जिम्मेदारी तात्या टोपे पर ही थी.
कानपुर में अंग्रेजों से संघर्ष
1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में जब क्रांति की ज्वाला कानपुर पहुंची तो नाना साहब के साथ तात्या टोपे ने अंग्रेजों से जमकर मुकाबला किया. वहां के क्रांतिकारियों को एकजुट करने का काम नाना साहब और तात्या टोपे का ही था. कानपुर को अंग्रेजों से आजाद करा लिया गया था, हालांकि बाद में अंग्रेजों ने फिर कानपुर पर कब्जा कर लिया था.
रानी लक्ष्मीबाई के साथ अंग्रेजों से लड़ा युद्ध
अंग्रेजों ने झांसी के किले पर हमला किया तो झांसी की रानी ने डटकर मुकाबला किया, लेकिन धोखे का शिकार होने के बाद उनके विश्वस्त साथियों ने उन्हें कालपी की ओर जाने की सलाह दी. यहां तात्या टोपे ने उनका साथ दिया और कोंच में अंग्रेजों के साथ हुए भयंकर युद्ध में अंग्रेजों के सामने खड़े रहे. हालांकि अंग्रेजों को जीत मिलती देख, रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ग्वालियर निकल गए और यहां फिर अंग्रेजों से युद्ध हुआ.
तात्या टोपे ने जारी रखा संघर्ष
ग्वालियर में रानी लक्ष्मीबाई को वीरगति प्राप्त होने के बाद भी तात्या टोपे ने अपना संघर्ष जारी रखा और गोरिल्ला युद्ध से अंग्रेजों का मुकाबला करने लगे. वह इस कला में माहिर थे, ऐसे में वह छोटे-छोटे हमले कर ही अंग्रेजों का बड़ा नुकसान करने लगे. अंग्रेजों ने काफी कोशिश की, लेकिन उन्हें पकड़ नहीं पा रहे थे.
शिवपुरी के जंगलों से धोखे से पकड़ा
नरवर के राजा ने तात्या टोपे के साथ धोखा किया और शिवपुरी के पाड़ौन जंगलों में सोते समय उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन पर मुकदमा चलाया गया और 15 अप्रैल को उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई, 18 अप्रैल 1859 को उन्हें फांसी दे दी गई.