वो मर जाएगी, कोई तो अस्पताल पहुंचा दो… बस वाले ने बीच हाइवे उतारा, नहीं बना कोई सहारा

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Odisha (2)

देख तेरे संसार की हालत, क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान… 1954 में एक फिल्म आई थी नास्तिक. जिसमें एक गाना या भजन इस्तेमाल किया गया था, जिसकी लाइनें ऊपर आप पढ़ चुके हैं. कवि प्रदीप ने यूं तो कई बेहतरीन भजन और गाने लिखे हैं लेकिन इसके बोल आज भी गाहे-बहाने जबान में आ ही जाते हैं. ओडिशा का सुजीत आज अपनी मां के बिना जिंदगी बिता रहा है. लेकिन एक ख्याल है जो उसको खाए जा रहा है कि मेरी मां बच सकती थी… 1954 से 2023 के बीच बड़े बदलाव दिख रहे हैं. लोग पहले से ज्यादा शिक्षित हो गए हैं. मगर शायद इंसानियत की पढ़ाई चूंकि किसी स्कूल,कॉलेज और यूनिवर्सिटी में नहीं होती इसलिए इससे हम महरूम रह गए. हर बार शख्स बदलता है, जगह बदलती है लेकिन गुनाह वही रहता है.

एक लड़का अपनी 50 साल की बीमार मां का AIIMS भुवनेश्वर से इलाज करवाकर बरहमपुर ले जा रहा था. हाइवे में एक बस रुकती है और लड़का अपनी मां को लेकर बस में चढ़ जाता है. उसे नहीं पता कि बस का किराया क्या है, ये सरकारी है या प्राइवेट. बस में अचानक बुजुर्ग महिला की तबीयत बिगड़ जाती है. लड़का भागकर बस कंडक्टर और ड्राइवर के पास जाता है और गुहार लगाता है कि मां की तबीयत बिगड़ गई है. आप छत्रपुर या बरहमपुर के किसी अस्पताल में उनको उतार दें. लेकिन बीच हाइवे में वो बस वाला उनको उतार देता है.

बस से उतरने को किया मजबूर

कथित तौर पर बस के स्टाफ ने बेटे और उसकी बीमार मां को बस से उतरने के लिए मजबूर कर दिया. सुजीत काफी देर तक हाइवे में चिल्ला चिल्लाकर लोगों से मदद मांग रहा था मगर वो ये भूल गया था कि शायद इंसानियत मर चुकी है. वो एक बार अपनी मां के तरफ देखता, उनको ठीक होने की तसल्ली देता फिर हाथ दिखाकर वाहनों को रुकने की अपील करता. मगर किसी की जान बचाने में क्यों इंसान अपना वक्त बर्बाद करे. हमने देखा है पान की दुकानों, चाय सिगरेट में घंटों बिताने वाले भी सड़कों पर खुद को अंबानी से कम नहीं समझते. उनके लिए वक्त की कीमत सड़क पर ही होती है.

तब तक टूट चुकीं थी सांसें

दोनों (मां-बेटे) की हालात देखकर लग रहा था कि उसके पास पैसे की तंगी है. वो किसी तरह बस अस्पताल पहुंचना चाहता है ताकि जिंदगी देने वाली मां की जिंदगी बचा सके. लेकिन मां की मौत हो जाती है. बुजुर्ग महिला के परिजनों ने बताया कि काफी देर तक सुजीत मदद मांगता रहा मगर किसी ने मदद नहीं की. बस वाले में भी बीच हाइवे में उतार दिया था जहां पर कोई वाहन नहीं रुकता. पुलिस को जब तक सूचना मिली उसके बाद तुरंत महिला को अस्पताल पहुंचाया गया मगर तब तक उसकी सांसें टूट चुकी थी. उसकी मौत हो गई थी.

सुजीत का भरोसा मानवता से उठा जाएगा

सुजीत बुरी तरह रो रहा था. वो बार-बार एक ही बात कह रहा था कि मां को वक्त पर इलाज मिल जाता तो वो बच जाती. लेकिन सुजीत तुम उस दौर में सांस ले रहे हो जहां पर मानवता शब्द बेमानी हो गई है. यहां पर मानवता सिर्फ वॉट्सअप स्टेटस तक सीमित रह गई है. इसलिए तुमको बहुत ज्यादा सोचने की जरुरत नहीं है. यहां पर आंख खुलते सबसे पहले ऐसे लोग ऐसे स्टेटस लगाते हैं जिसको देखकर लगता है कि शायद हम कलयुग नहीं द्वापर या सतयुग में पहुंच गए हों. हर रोज ऐसी घटनाएं सामने आती हैं जो सोचने पर मजबूर करती हैं. आज ओडिशा है कल कोई और होगा. आज सुजीत है कल कोई दूसरा नाम बदल जाएगा….

कवि प्रदीप का हर लफ्ज संजीदा होता हुआ

कवि प्रदीप का हर लफ़्ज़ मानों ऐसा है जैसे किसी ने भविष्य की बात बता दी हो. 1954 में मुल्क आजादी के बाद ठीक से खड़ा ही हो रहा था. उसी वक्त ये भजन लिखा गया. लेखक वो ही लिखता है जो वो देखता है, महसूस करता है. खैर, चलिए लुफ्त उठाइये इस गीत का…

देख तेरे संसार की हालत, क्या हो गई भगवान,
कितना बदल गया इंसान, कितना बदल गया इंसान,
सूरज ना बदला, चांद ना बदला, ना बदला रे आसमान,
कितना बदल गया इंसान, कितना बदल गया इंसान,

आया समय बड़ा बेढंगा, आज आदमी बना लफ़ंगा,
कहीं पे झगड़ा, कहीं पे दंगा,नाच रहा नर होकर नंगा,
छल और कपट के हाथों, अपना बेच रहा ईमान,
कितना बदल गया इंसान, कितना बदल गया इंसान,

राम के भक्त,रहीम के बन्दे,रचते आज फरेब के फंदे,
कितने ये मक्क़ार ये अंधे, देख लिए इनके भी धंधे,
इन्हीं की काली करतूतों से हुआ ये मुल्क मशान,
कितना बदल गया इंसान, कितना बदल गया इंसान,

जो हम आपस में ना झगड़ते, बने हुए क्यूं खेल बिगड़ते,
काहे लाखों घर ये उजड़ते, क्यूं ये बच्चे मां से बिछड़ते,
फूट-फूट कर क्यों रोते प्यारे बापू के प्राण,
कितना बदल गया इंसान, कितना बदल गया इंसान

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