लोकतंत्र में रंगभेद के लिए जगह नहीं, लेकिन LDF सरकार को काले रंग में भी नजर आता है खतरा

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Thiruvananthapuram

नई दिल्ली: लोकतंत्र.. कहा जाता है कि यह शब्द सिर्फ आम लोगों के लिए है. कनाडा के मशहूर कवि और उपन्यासकार मार्गरेट एटवुड ने कहा था, ‘इसका इस्तेमाल बस एक शब्द के रूप में होता है, एक ऐसा शब्द, जिसका जिक्र तमाम शब्दों के बाद बार-बार होता है (It runs on words, words after words, after words).’ दिलचस्प बात यह है कि जरूरी नहीं है कि इस शब्द का इस्तेमाल सत्तारूढ़ व्यवस्था के अनुकूल हो, क्योंकि जो सरकार के लिए फायदेमंद है, वह उसके विरोधियों को मुश्किल में डाल सकता है. हकीकत में, फायदे और नुकसान के बीच बस यही द्वंद्वात्मकता है, जो लोकतांत्रिक कल्पना के लिए मौलिक है.

गौर करने वाली बात है कि लोकतंत्र को अलग-अलग तरीके से व्यक्त किया जाता है. व्यंग्य और उपहास तो उदाहरण है. यह एथेनियन कल्चरल लाइफ का अभिन्न हिस्सा था, जहां इसे लोकतांत्रिक लोकाचार का बुनियादी घटक माना जाता था. आजकल के दौर में लोकतंत्र सरकारी कामकाज और नीतियों की आलोचना रूप ले लेता है. वहीं, सत्ताधारी पार्टी की घोर निंदा करते हुए बंद, घेराव और सड़क पर विरोध प्रदर्शन करने के पीछे लोकतंत्र का हवाला दिया जाता है. इन सभी से समाज और राजनीति में खुलापन आता है, वरना जब आधिकारिक नैरेटिव निर्विरोध हो जाते हैं तो समाज स्तब्ध रह जाता है.

क्या इस तरह के माहौल का सामना सरकार कानूनी तरीके से कर सकती है? क्या सड़कों पर होने वाली हिंसा रोकने के मकसद से की गई कार्रवाई को राजनीतिक नाराजगी की जायज अभिव्यक्ति माना जा सकता है? इसमें अंतर करना बेहद जरूरी है, क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी संवैधानिक रूप से इसे स्वीकार और सहन करने के लिए बाध्य है और उसके पास बाद में कानूनी रूप से इसके खिलाफ कार्रवाई करने की शक्तियां भी हैं. अब तक बांधी गई इस पूरी भूमिका की वजह केरल में संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (UDF) और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के नेतृत्व वाले विपक्ष द्वारा हाल ही में किया गया आंदोलन है.

हाल ही में राज्य का बजट पेश किया गया, जिसमें वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (LDF) सरकार ने टैक्स में इजाफा करते हुए पेट्रोलियम उत्पादों पर दो रुपये प्रति लीटर के हिसाब से सेस बढ़ा दिया. इसके विरोध में आंदोलन किया गया, जिसका मकसद विशेष रूप से मुख्यमंत्री पिनरई विजयन और उनकी कैबिनेट के सदस्यों को काले झंडे दिखाना था. यह अच्छी बात है कि सड़क पर इस आंदोलन ने कोई उग्र रूप नहीं लिया और न ही किसी भी तरह की हिंसा हुई. वहीं, दिलचस्प बात यह है कि 2011 से 2016 के दौरान जब यूडीएफ की सरकार सत्ता में थी, तब सीपीआईएम के तत्कालीन राज्य सचिव पिनराई विजयन ने खुद इस तरह के आंदोलनों को सही ठहराया था और खुद कई आंदोलन का नेतृत्व भी किया था. संयोग से, फ्यूल सेस में इजाफा इस तरह के विरोध का कारण बन गया है. ऐसे में किसी संवैधानिक पदाधिकारी का विरोध करने के लिए काले झंडे लहराना केरल में लोकतांत्रिक असहमति जताने या अपनी आवाज उठाने का तरीका माना जाता है.

हालांकि, हाल में हुए आंदोलनों को जिस बात ने अलग बनाया, वह इनसे निपटने के लिए सरकार और पुलिस का तरीका था. ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री की सुरक्षा सुनिश्चित करने के उत्साह में पुलिस अपनी शक्तियों का गलत तरीके से इस्तेमाल कर रही है. इनमें ट्रैफिक रोकना, मुख्यमंत्री की यात्रा के वक्त सड़कों को ब्लॉक करना और काफी ज्यादा संख्या में पुलिस फोर्स तैनात करना शामिल है. उदाहरण के लिए, मुख्यमंत्री की हालिया कासरगोड यात्रा के दौरान 15 डीएसपी और 40 सब-इंस्पेक्टर के साथ 900 पुलिसकर्मी तैनात किए गए, जो जमीन और आसमान दोनों पर पूरी तरह नजर रखे हुए थे. वहीं, कन्नूर जिला भी 500 पुलिसकर्मियों के साथ तमाम आला अधिकारियों की मौजूदगी से पुलिस के शक्ति प्रदर्शन का गवाह बना.

केरल में ऐसे हालात भी कई बार बन चुके हैं, जब पुलिस ने सीएम विजयन द्वारा संबोधित बैठकों में शामिल होने वालों पर काले कपड़े से लेकर काले मास्क तक लाने पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की. एक अन्य मामले पर गौर करें तो पार्टी के दिवंगत नेता और पूर्व विधायक के घर मुख्यमंत्री के जाने से पहले मृतक के प्रति शोक संवेदना जताने के लिए लगे काले झंडे भी पुलिस ने हटा दिए थे. विपक्षी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को हिरासत में लेने समेत सख्त तरीको अलावा उठाए गए ये सभी अतिरिक्त कदम हैं, जिनके तहत आम लोगों को सड़कों से जबरन हटाया जा रहा है और भीड़ को तितर-बितर करने के लिए बल प्रयोग हो रहा है. संक्षेप में कहा जाए तो मुख्यमंत्री जहां भी जाते हैं, रास्ते में रहने वाले लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है.

मेरा तर्क यह नहीं है कि पुलिस के अधिकारियों को मुख्यमंत्री जैसे उच्चस्तरीय राजनीतिक पदाधिकारी की सुरक्षा में कोई ढिलाई दिखानी चाहिए. खतरे को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री के लिए निश्चित रूप से पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था की जानी चाहिए, जो हालात के हिसाब से जरूरी हों. लेकिन एक मुख्यमंत्री अगर दर्जनों एस्कॉर्ट वाहनों, सहयोगियों और तमाम तामझाम के साथ नियमित रूप से यात्रा करता है तो लोकतंत्र के नजरिए से देखा जाए तो एक तरह से वह आम लोगों की जिंदगी में बाधा पैदा करता है. साथ ही, विपक्ष से बातचीत करने में सरकार की अनिच्छा और उसकी असहिष्णुता आलोचनाओं के प्रति संवैधानिक शासन व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि राजनीति को सूक्ष्म, सरल और संवैधानिक बनाने के लिए संवाद संस्कृति की खाद की जरूरत होती है, क्योंकि सरकार और विपक्ष लोकतांत्रिक ढांचे के अभिन्न अंग हैं. इस हकीकत को मानने से इनकार करना अकेले हनीमून मनाने जैसा है.

एक बार फिर कहूंगा कि सरकार को सत्ता का लोकतांत्रिक स्वरूप लूटने की अनुमति नहीं देनी चाहिए, क्योंकि इससे राजनीति शुष्क हो जाएगी. यह बात भी याद रखने की जरूरत है कि सामूहिक शक्ति का इस्तेमाल सामूहिक भलाई के लिए करना ही लोकतंत्र का मूलभूत सिद्धांत है और मौजूदा मामले में टैक्स और सेस में इजाफा शायद ही इस तरह के उद्देश्य को पूरा करता है. वहीं, सरकार का तर्क है कि केंद्र के ‘भेदभावपूर्ण रवैये’ की वजह से राज्य की आर्थिक स्थिति खराब हो गई है, जिससे निपटने के लिए ऐसा कदम उठाना पड़ा. हालांकि, यह भी आंशिक रूप से सच है. इसमें एक बेहद अहम मसले से बचने की कोशिश की गई है, क्योंकि सरकार ने फिजूलखर्ची से बचने में लापरवाही बरती है.

ऐसी स्थिति में सरकार को क्या करना चाहिए? पहली बात यह कि अगर सरकार किसी दिक्कत से निपटने के लिए ईमानदारी से कोई कदम उठा रही है तो उसे विपक्ष के साथ बातचीत के रास्ते खोलने चाहिए. इससे न सिर्फ राजनेताओं के बीच आपसी विश्वास बढ़ता है, बल्कि इससे आम जनता को भी पता चलता है कि सरकार क्या कदम उठा रही है. आखिरकार इस तरह के कदम से ही शांति आती है और राजनीतिक/संवैधानिक पदाधिकारियों की सुरक्षा सुनिश्चित होती है, न कि पुलिसकर्मियों की ताकत दिखाने से बदलाव आता है. इसका एक और फायदा यह भी है कि इससे लोकतांत्रिक कल्पना का नैतिक आयाम भी मजबूत होता है.

(डिस्क्लेमर: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं. इस लेख के विचारों और तथ्यों का प्रतिनिधित्व न्यूज9 नहीं करता है.)

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