Emergency in India : आजाद भारत की वो मनहूस 25 जून जिसने इंदिरा गांधी और कांग्रेस को कहीं का नहीं छोड़ा…..

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Indira Gandhi

25 जून जब-जब आती है तो कई खट्टी मीठी यादें ताजा हो जाती हैं. बात अगर खट्टी यादों की करें तो 25 जून 1975 को ही देश में इंदिरा गांधी ने आपातकाल (Emergency in India) लागू किया था. जिसने इंदिरा गांधी, कांग्रेस और देश को कहीं का नहीं छोड़ा. मतलब आपातकाल की आड़ में आजाद भारत में अपनों ने ही ‘अपनों’ को गुलामों से बदतर हालात में धकेल दिया था. मर्जी से हंसने,बोलने, मन की कहने और सुनने तक पर पाबंदी लगा दी गई. तमाम ताकतवर हिंदुस्तानियों को जबरिया ही गिरफ्तार करके जानवरों की मानिंद जेलों में ठूंस दिया गया. अगर बात किसी खूबसूरत 25 जून की हो तो फिर सन् 1983 की वो तारीख हिंदुस्तानी कभी नहीं भूल सकते हैं जब, हिंदुस्तान ने क्रिकेट के इतिहास में पहले विश्व कप (India Win 1983 Cricket World Cup) भी इसी तारीख को अपनी झोली में डाला था. फिलहाल बात उस काले दिन यानी आपातकाल की, जिसने अगर आम हिंदुस्तानियों को जीने के काबिल नहीं छोड़ा, तो उसी आपातकाल ने श्रीमति इंदिरा गांधी की प्रधानमंत्री की कुर्सी भी छिनवा डाली थी.

25 दिन 1975 को भारत में लगाई गई इमरजेंसी को ही कुछ लोग ‘सिविल इमरजेंसी’ भी कहते हैं. उस नारकीय आपातकाल का चेहरा किस कदर भयावह या कहिए कि कुरुप था? इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि, तब भारत में मौजूद बेलगाम कांग्रेसी हुकूमत ने ‘प्रेस’ की आजादी भी छीन ली थी. रेडियो पर वही सुनाए जाने का ऐलान कर दिया गया था जो, सरकार को खुश कर सके. अखबारों में वही छापने का हुक्म था जिससे सरकार जश्न मना सके. और तो और आपातकाल के नाम पर बेकाबू हुई हुकूमत ने लोगों की निजता का फैसला भी खुद ही करना शुरू कर दिया था. जिसका सबसे बुरा कहिए या फिर कुत्सित रूप था “नसबंदी”. मतलब सरकार जब और जहां से जिसे चाहती उसे पकड़ कर जबरन, उसका ऑपरेशन (नसबंदी) करवा डालती. मुश्किल यह कि बेलगाम हुई उस सरकार के खिलाफ देश में कहीं सुनवाई नहीं थी. मतलब कुल जमा मरना यहीं और जीना यहीं वाली हालत में थी देश की बेबस-लाचार जनता.

यहां बताना जरूरी है कि सन् 1971 में हुए लोकसभा चुनाव में ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर, केंद्र में कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका हिंदुस्तान की जनता ने दिया था. तब इंदिरा गांधी ने अपने प्रतिद्वंदी और उस जमाने के कद्दावर नेता रहे राज नारायण को मतों के बड़े अंतर से हराया था. हालांकि तब इंदिरा गांधी पर आरोप भी लगे थे कि, उन्होंने साम दाम दण्ड भेद सबके सहारे से इतनी बड़ी फतेह हासिल की थी. चूंकि इंदिरा गांधी का सिक्का उस इलेक्शन में जम-चल चुका था. लिहाजा इलेक्शन के बाद विरोधी लाख चीख-पुकार मचाते रहे. मगर वो हो-हल्ला सब बेकार का साबित हुआ. हालांकि उस चुनाव के बाद इंदिरा गांधी की प्रचंड जीत से खार खाए बैठे विरोधी, इलेक्शन में धांधली, सरकारी कर्मचारियों का बेजा इस्तेमाल, के मुद्दे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट भी जा पहुंचे. 12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के न केवल निर्वाचन को रद्द कर दिया. अपितु उनके इलेक्शन लड़ने पर आगामी 6 साल के लिए पाबंदी भी लगा दी.

इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ इंदिरा गांधी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गईं. तो वहां भी 24 जून सन् 1975 को जस्टिस वी आर कृष्ण अय्यर ने, इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए उस पर अपनी मुहर लगा दी. इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने तो यहां तक आदेश दे दिया कि, बहैसियत सांसद इंदिरा गांधी को मिलने वाले तमाम विशेषाधिकार तत्काल प्रभाव से बंद कर दिए जाएं. साथ ही उन्हें चुनाव में हिस्सा न लेने का भी आदेश दिया. हालांकि इस सबके बाद भी वे प्रधानमंत्री पद पर बनी रह सकती थीं. मतलब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रहने के बाद भी सिवाय ‘रबर स्टैंप’ से ज्यादा कुछ नहीं छोड़ी थीं. उनके पास प्रधानमंत्री की कुर्सी से इस्तीफा देने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं बचा था. ‘द रेड साड़ी’ में स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो लिखते हैं कि, “इंदिरा प्रधानमंत्री के पद से त्याग पत्र देना चाहती थीं. उनके छोटे बेटे संजय गांधी ने मगर उन्हें इस्तीफा देने से रोक दिया. संजय गांधी मां को दूसरे कमरे में ले गए. संजय गांधी ने मां को समझाया कि अगर उन्होंने प्रधानमंत्री की कुर्सी से इस्तीफा दे दिया तो, विरोधी दल उन्हें (इंदिरा गांधी) गिरफ्तार करके जेल में डाल सकते हैं.”

बेटे संजय की वो सलाह इंदिरा गांधी को काम की लगी. लिहाजा इंदिरा गांधी ने इस्तीफा देने का इरादा छोड़ दिया. अब तक जय प्रकाश नारायण पक्ष देश भर में इंदिरा के खिलाफ बगावत का बिगुल बजा चुका था. वे लोग देश भर में इंदिरा की खिलाफत में विरोध प्रदर्शन-रैलियां कर रहे थे. जबकि इंदिरा गांधी की ओर से काउंटर करने के लिए उनके निजी सचिव रहे आर के धवन, भी बसों में भीड़ भर-भरकर इंदिरा गांधी के समर्थन में रैलियां आयोजित करवाने में जुट चुके थे. इसके बाद भी मगर जेपी आंदोलन इंदिरा गांधी और उनके समर्थकों पर भारी पड़ गया. 25 जून सन् 1975 को जेपी और उनके समर्थक दिल्ली के मशहूर रामलीला मैदान में ऐतिहासिक रैली करने वाले थे. तब तक देश के खुफिया तंत्र ने श्रीमति इंदिरा गांधी का आगाह कर दिया कि, अगर जेपी रामलीला मैदान वाली रैली करने में कामयाब हो गए, तो फिर इंदिरा गांधी के खिलाफ देश में बगावत-विद्रोह का बिगुल बजने से कोई नहीं रोक सकेगा.

लिहाजा अपनी खुफिया एजेंसी से मिले उस खतरनाक इनपुट पर इंदिरा गांधी ने कैबिनेट से कोई चर्चा नहीं की. संजय गांधी और दो चार अपने करीबियों से चर्चा के बाद उन्होंने देश मेे 25 जून 1975 को ही आपातकाल लागू करने जैसे खतरनाक प्लान का ब्लू-प्रिंट बना डाला. आनन-फानन में देश में लागू किए गए आपातकाल के कागजातों पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने आधी रात के वक्त अपने हस्ताक्षर किए थे. 25 जून सन् 1975 को लागू वो इमरजेंसी करीब 21 महीने बाद सन् 1977 में खतम हो सकी. कहा जाता है कि आपातकाल की घोषणा करते ही, विपक्षी नेताओं को रातोंरात गिरफ्तार करके जेलों में डाल दिया गया. इनमें इंदिरा गांधी के धुर विरोधी जेपी, अटल बिहारी वाजपेयी, मोरारजी देसाई, लालकृष्ण आडवाणी से कद्दावर नेता शामिल थे. कहते तो यह भी हैं कि संजय गांधी ने अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री को उन विरोधियों की लिस्ट सौंप दी थी जो, इमरजेंसी की आड़ में जेलों में जबरदस्ती ठुंसवाना था.

अखबारों में इंदिरा गांधी के और इमरजेंसी के खिलाफ कोई खबर न छपे. इसके लिए प्रेस को सेंसर कर दिया गया. यहां तक कि अखबारों की बिजली तक कटवा दी गई. कद्दावर कांग्रेसी नेता और हुकूमत के अधिकारी, अखबारों के दफ्तरों में बैठकर हर खबर को पढ़ने के बाद ही छापने की इजाजत दे रहे थे. मोरो अपनी किताब में आगे लिखते हैं कि,”संजय गांधी ने तो राज्य के मुख्यमंत्रियों को आदेश दे डाला कि, वे सख्ती से नसबंदी अभियान अमल में लाएं. इसकी एवज में यानी संजय गांधी को खुश करने के लिए हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री, बनारसी दास गुप्ता ने तो महज 3 सप्ताह में ही 60 हजार के करीब लोगों की नसबंदी करवा डाली.” इसके बाद दूसरे राज्यों पर भी लोगों की जबरन नसबंदी कराने का दबाव पड़ा. सरकारी अधिकारियों को खुलेआम टारगेट दे दिए गए किसको कितने दिन में कितने लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करानी है. नसबंदी करवाने वालों को 120 रुपए या फिर एक पीपा खाने का तेल या फिर एक रेडियो सरकारी खाते से लेने का लालच दिया गया.

इन्ही तमाम फजीहतों के बीच 18 जनवरी सन् 1977 को हालातों के हाथों मजबूर और न चाहते हुए भी इंदिरा गांधी को देश में लोकसभा चुनाव की घोषणा करनी पड़ी. इरादतन जिन विरोधी नेताओं को उन्होंने आपातकाल का हवाला देकर जबरदस्ती जेल में कैद करवाया था. उन सबको रातों-रात रिहा करवाना पड़ा. अंतत: उस आपातकाल की हुई दुर्गति को देखते हुए 21 मार्च सन् 1977 को इंदिरा गांधी को देश में आपातकाल खतम करने की घोषणा करनी पड़ गई. इससे पहले 16 से लेकर 20 मार्च तक हो चुके लोकसभा चुनावों का जब परिणाम सामने आया तो, इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी को उसकी हार ने देश-दुनिया में मुंह दिखाने के भी काबिल नहीं छोड़ा. विपक्ष ने कांग्रेस को 154 सीटों पर समेट कर खुद 298 सीटों पर दर्ज हासिल कराके, इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस को समझा दिया कि, लोकतंत्र में जनता-जनार्दन है न कि सरकारी मशीनरी या उसका दुरुपयोग करना. और तो और आपातकाल इंदिरा गांधी के ऊपर खुद पर इस कदर भारी पड़ा था कि, वे उस इलेक्शन में रायबरेली से अपने धुर-विरोधी कद्दावर नेता राज नारायण से ही हार गईं. कांग्रेस को बिहार और उत्तर प्रदेश में उस लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नसीब नहीं हुई.

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