कर्नाटक चुनाव में बीजेपी की राह मुश्किल, लिंगायत की नाराजगी कहीं बन न जाए गले का फांस!

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Karnataka Assembly Election

गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव हो जाने के बाद बीजेपी के इलेक्शन मैनेजर अब अपना ध्यान कर्नाटक पर केंद्रित कर रहे हैं. 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से एक साल पहले 2023 में यहां चुनाव होने हैं. ध्यान रहे कि 2023 में 10 राज्यों में विधानसभा चुनाव तय हैं. तीन उत्तर-पूर्वी राज्यों त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड में फरवरी में चुनाव होंगे. नवंबर में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और मिजोरम में चुनाव होंगे और दिसंबर में तेलंगाना और राजस्थान में चुनाव होने हैं. इस तरह अगले साल पूरे साल भर विधानसभा चुनाव निर्धारित हैं. जम्मू-कश्मीर में भी चुनाव होने हैं, हालांकि कार्यक्रम अभी तय नहीं हुआ है.

कर्नाटक उन चार बड़े राज्यों में से एक है, जहां अगले साल चुनाव होने हैं, लेकिन दूसरे राज्यों के चुनाव करीब-करीब एक साथ हैं जबकि यह एकमात्र ऐसा राज्य होगा जहां मई में चुनाव होगा. ऐसे में जब चुनाव सिर्फ पांच महीने दूर हैं, बीजेपी के केंद्रीय नेता नियमित रूप से बेंगलुरु का दौरा कर रहे हैं और रणनीति बनाने के साथ-साथ बूथ प्रबंधन की योजना बना रहे हैं. गृह मंत्री और पार्टी के मुख्य चुनावी रणनीतिकार अमित शाह पिछले कुछ हफ्तों में दो बार राज्य का दौरा कर चुके हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी राज्य का दौरा कर चुके हैं.

राज्य में मोदी पार्टी के स्टार प्रचारक हो सकते हैं. राज्य बीजेपी प्रमुख नलिन कुमार कटील और संगठन सचिव जीवी राजेश, जिन्हें आरएसएस द्वारा नियुक्त किया गया है, ने पिछले दो दिनों में दिल्ली में केंद्रीय नेताओं से मुलाकात की है. उम्मीद है कि मोदी चुनाव से पहले कम से कम चार रैलियों को संबोधित करेंगे. कर्नाटक एक ऐसा राज्य है जिसे हारना बीजेपी बर्दाश्त नहीं कर सकती. यह एकमात्र ऐसा दक्षिणी राज्य है जहां पार्टी सत्ता में है.

हालांकि, बीजेपी ने यहां कभी भी बहुमत हासिल नहीं किया है, भले ही वह तीन बार 2007, 2008 और अब सत्ता में रही है. 2007 में यह जेडी(एस) के साथ गठबंधन में सत्ता में थी, लेकिन जब जेडी(एस) ने सत्ता-साझाकरण समझौते का सम्मान करने से इनकार कर दिया और तो गठबंधन टूट गया. अगले साल चुनाव हुए और बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बन गई और बीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व में सरकार बनाने के लिए निर्दलीय उम्मीदवारों को शामिल किया गया. जल्द ही, येदियुरप्पा खनन घोटालों और लैंड डिनोटिफिकेशन से जुड़े भ्रष्टाचार में फंस गए. उन्हें जेल जाना पड़ा और बीजेपी से साथ न मिलने की वजह से वह नाराज हो गए. उन्होंने पार्टी छोड़ दी और 2013 में चुनावों से पहले अपनी खुद की कर्नाटक जनता पार्टी (केजेपी) बनाई. उनकी पार्टी केवल नौ प्रतिशत वोट हासिल कर पाई, लेकिन यह कांग्रेस को सत्ता में लाने के लिए काफी था.

2018 में तीन पार्टियों में से कोई भी बहुमत हासिल नहीं कर सकी. कांग्रेस और जेडी(एस) ने मिलकर सरकार बनाई लेकिन बीजेपी सरकार गिराने और सरकार बनाने के लिए दोनों पार्टियों के विधायकों को अपने साथ जोड़ने में कामयाब रही. इसमें येदियुरप्पा का शिकारी कौशल काम आया, लेकिन जल्द ही येदियुरप्पा से सावधान बीजेपी आलाकमान ने एक संगठनात्मक सेवानिवृत्ति नियम का हवाला देते हुए उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा दिया और उनकी जगह बसवराज बोम्मई को सीएम बना दिया.

बीजेपी के लिए जीत हासिल करना मुश्किल

कई कारणों से बीजेपी के लिए 2023 का चुनाव जीतना मुश्किल होगा और इन कारणों का संबंध बीजेपी से है.

  • सबसे पहले, बीजेपी का लचर शासन और सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार. ठेकेदारों ने मंत्रियों पर रिश्वत मांगने का आरोप लगाया है. उनका कहना है कि मंत्री सरकारी परियोजनाओं में 40 प्रतिशत कमीशन मांग रहे हैं.
  • दूसरा, बोम्मई के पास वोट बटोरने का करिश्मा नहीं है
  • तीसरा, पार्टी में गहरी अंतर्कलह है.
  • चौथा, येदियुरप्पा, पार्टी को तीन बार सत्ता में लाने के बावजूद अपने अपमान से तड़प रहे हैं, चुपचाप अपने घावों को सहन कर रहे हैं और पार्टी के लिए सक्रिय रूप से प्रचार नहीं करने का फैसला कर सकते हैं, क्योंकि बड़ी उम्र के कारण पार्टी ने उन्हें सीएम के पद से हटा दिया था.

लिंगायत बीजेपी से नाखुश हैं

इससे भी अहम बात यह है कि बीजेपी का जनाधार लिंगायत समुदाय, येदियुरप्पा को अचानक सत्ता से हटाने के कारण पार्टी से नाखुश है. 18 फीसदी आबादी वाले लिंगायत राज्य में सबसे बड़े जनसांख्यिकीय ताकत रखते हैं और उन्हें लगता है कि बीजेपी ने उनके नेता का इस्तेमाल किया और उन्हें छोड़ दिया. उन्हें यह भी लगता है कि बोम्मई एक स्टॉप-गैप सीएम हैं और अगले साल के चुनाव के बाद बीजेपी एक गैर-लिंगायत को मुख्यमंत्री बना देगी, और इस समुदाय को राजनीतिक शक्ति से वंचित किया जाएगा.

लेकिन क्या वे बीजेपी को छोड़ सकते हैं?

लिंगायतों के लिए बीजेपी को छोड़ना मुश्किल होगा, क्योंकि बीजेपी के जरिए इस समुदाय को विधायक, सरकार में लिंगायत अधिकारी और लिंगायत धार्मिक केंद्रों के लिए मोटा दान मिला है. इस साल अगस्त में सरकार ने लिंगायत मठों, मंदिरों और ट्रस्टों को अनुदान के रूप में 142 करोड़ रुपये जारी किए, जबकि लिंगायत तीर्थस्थलों के लिए 108 करोड़ रुपये आवंटित किए गए, लेकिन समुदाय के भीतर, न केवल येदियुरप्पा को दरकिनार किए जाने की वजह से, बल्कि इस भावना के कारण भी कि पार्टी के भीतर ब्राह्मण लॉबी उनके संतों को निशाना बना रही है, एक तरह का अप्रकट क्रोध है.

कुछ संतों पर सेक्स स्कैंडल में लिप्त होने के आरोप लगे हैं. हालांकि, ऐसे स्कैंडलों से क्षुब्ध इस समुदाय के नेता संतों से उचित व्यवहार की मांग कर रहे हैं, लेकिन उन्हें लगता है कि ऐसे स्कैंडलों में शामिल ब्राह्मण संतों को छोड़ दिया गया है. लिंगायत आंदोलन के संस्थापक और 12वीं सदी के समाज सुधारक बासवन्ना के कट्टरपंथी दर्शन की ओर लौटने की मांग करने वाले इस समुदाय के भीतर एक सुधारवादी आंदोलन चल रहा है. उन्हें लगता है कि लिंगायत आंदोलन, जो एक विद्रोही संप्रदाय था जिसने ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था को खारिज कर दिया था, को अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहिए. जड़ों की ओर वापसी का आंदोलन और बीजेपी के प्रति गुस्सा सत्ताधारी पार्टी के लिए बुरी खबर हो सकती है.

जेडी(एस) की कमजोर स्थिति

जेडी (एस) एक पारिवारिक उद्यम है. हालांकि यह पार्टी किंग-मेकर रही है लेकिन अब गिरावट की ओर है. इसके पितामह, अस्सी वर्ष की उम्र के पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा की सेहत भी बहुत अच्छी नहीं है, और उनके दो बेटे पार्टी को एक साथ रखने में असमर्थ हैं. 2023 के चुनावों में पार्टी की संख्या में गिरावट देखी जा सकती है.

यहां कांग्रेस के पास मौका है

जहां तक कांग्रेस की बात है, बीजेपी के सत्ता में होने के बावजूद, आगामी चुनावों में पार्टी की जीत की संभावना है. लिंगायतों का गुस्सा, अपने शहर की बुनियादी सुविधाओं की समस्याओं को हल करने में सरकार की अक्षमता के कारण बेंगलुरु वासियों का बीजेपी से मोहभंग, सरकार में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और बढ़ते अपराध के कारण कांग्रेस को फायदा हो सकता है. दूसरी ओर उसे मुसलमानों का भी समर्थन मिल सकता है जो आबादी में 12 प्रतिशत का हिस्सा रखते हैं. हालांकि, हाल के वर्षों में जेडी(एस) को मुसलमानों के एक वर्ग का साथ मिला था.

लेकिन कांग्रेस अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार सकती है. पूर्व मुख्यमंत्री और पार्टी के बड़े नेता एस सिद्धारमैया और केपीसीसी अध्यक्ष डीके शिव कुमार के बीच कोल्ड वार चल रहा है. सिद्धारमैया के पास कार्यकर्ता हैं, जबकि शिव कुमार के पास संसाधन हैं. अगर वे अपनी महत्वाकांक्षाओं को परे रखकर एकजुट होकर लड़ें तो कांग्रेस सत्ता में वापसी कर सकती है. अन्यथा, 2018 की पुनरावृत्ति हो सकती है और एक त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बन सकती है. ऐसे में बीजेपी निर्दलीयों की मदद से आसानी से सरकार बना सकती है और जेडी(एस) को खत्म कर सकती है.

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