Satire: चंद्रशेखर टाइप रामभक्त राम को पूजते पर मानस को अपना धर्मग्रंथ नहीं मानते

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Bihar Education Minister Chandrashekhar

अब बांटने का युग है. सुख-दुख बांटने का नहीं, गलत समझे आप. समाज को बांटने का. बांटने से सुख बढ़ता है औऱ वोट भी. बिहार में जाति जनगणना चल रही है. ये वो जनगणना है, जिससे दोनों राष्ट्रीय पार्टियां डरती हैं. समाज के दस फीसदी लोगों के हाथ में धन, संपदा, प्यार, सुरक्षा है तो नब्बे फीसदी के हिस्से में भूख, बेरोजगारी, गरीबी और लाचारी की भिक्षा है. मौके की नज़ाकत समझ बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने राम चरित मानस पर टिप्पणी कर डाली. कहा- मानस समाज को बांटती और जातिगत भेदभाव फैलाने वाला ग्रंथ है.

ये बात रामभक्तों को नहीं सुहाई. बस हल्ला बोल शुरू हो गया. हूप-हूप-रामद्रोही-राम द्रोही, हूप-हूप. क्योंकि आस्था तो आजकल छुईमुई का दूसरा नाम है. या छुईमुई को आस्था कह लीजिए. बवाल कटने पर चंद्रशेखऱ ने बताया कि वो खुद भी रामभक्त हैं. और मानस में बहुत सी बातें अच्छी भी कही गई हैं. लेकिन तब तक तो कउआ कान ले जा चुका था. अयोध्या से लेकर प्रयागराज तक के संत-महंतों की तपस्या में जैसे उर्वशी और मेनका जैसी अप्सराओं ने खलल डाल दिया हो. तीसरा नेत्र विस्फारित हो गया. जगदगुरु परमहंस आचार्य ने चंद्रशेखर की जीभ काट कर लाने वाले के लिए दस करोड़ के ईनाम की घोषणा कर डाली.

चंद्रशेखर टाइप रामभक्त मानस को अपना धर्मग्रंथ नहीं मानते

ज़रा गौर से देखा जाए तो ये दो रामभक्त संप्रदायों के बीच का विवाद है. वैसा ही विवाद, जैसा मुगलकाल में शैव-वैष्णव और शाक्तों के बीच छिड़ा करता था. चंद्रशेखर टाइप रामभक्त राम को तो पूजते हैं, लेकिन मानस को अपना धर्मग्रंथ नहीं मानते. वहीं दूसरा वर्ग मानस की आलोचना को भी राम का अपमान मानता है. भले ही खुल कर नहीं कहे, लेकिन ये वर्ग मानता है कि ढोर, गंवार, शूद्र,पशु, नारी. बहरहाल एक संत ने जीभ काट कर लाने का ऐलान कर दिया गया. संत पहले अपनी प्रकृति से भी संत हुआ करते थे. लेकिन अब कपड़ों से पहचाने जाते हैं.

भगवा पार्टी के राजकाज में हिंदू खतरे में

पहले सिर्फ इस्लाम खतरे में हुआ करता था. लेकिन पिछले आठ साल से भगवा पार्टी के राजकाज में हिंदू खतरे में हो गया है. चंद्रशेखर को चुनौती दी जा रही है. कहा गया है कि दूसरे धर्म की आलोचना करके दिखाओ, हम तो बहुत सहिष्णु है. हमने तो सिर्फ जीभ काटने की बात कही. दूसरे तो सिर तन से जुदा का फतवा जारी करते हैं. चलों इतनी मजहबी एकता तो हमारे समाज में आई कि हिंदू परंपरा ने बुरी ही सही मुसलमानों की कोई चीज़ तो अपनाई. लेकिन बात सिर्फ इतनी सी नहीं. बात धंधे की सियासत और सियासत के धंधे की भी है.

जो हिंदू हित की बात करेगा वो देश पर राज करेगा

जो हिंदू हित की बात करेगा वो देश पर राज करेगा. इस नारे से हिंदू भगवा झंड तले जब से इकट्ठा हुआ है. तब से धर्म के बहुत से ठेकेदारों का बोलबाला शुरू हा है. शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने मनुस्मृति औऱ आरएसएस के चिंतक गुरु गोलवलकर के बंच ऑफ थॉट की बात कह कर आग में घी का काम किया. संघ तो मौन रहा लेकिन दूसरे हिंदू संगठनों को आगे कर दिया. जिनकी ताकत से बीजेपी सत्ता में आई. फिर तो बढ़ गई लड़ाई. दरसल बीजेपी के सत्तासीन होने से अयोध्या और काशी में चोखा हो गया धर्म का धंधा. काशी में गंगा विलास क्रूज देख कर इसका अंदाज लगा सकता है कोई सावन का भी अंधा. यात्रा का खर्च तेरह लाख रुपए है. गंगा की लहरों पर धनवान विलास करेगा, ब्यौपार, आवागमन ब़ढ़ेगा, ये भी तय है. तो चढावा भी खूब चढेगा. पंडे, पुजारियों और अखाडों का इन दिनों खूब विकास हो रहा है.

इसके बावजूद यूपी में एक भगवा वस्त्रधारी का राजसुख इनसे देखा नहीं जाता है. योगीजी की कतार में कई महंत हैं. लिहाजा उग्र बयानों से इनका नाता है. क्योंकि हिंदू धर्म का मतलब उग्रता हो गया है. धार्मिक उग्रता के सामने सिंहासन झुक गया है. अभय जी महाराज मौनी बाबा ने प्रयागराज के झूंसी थान में तहरीर दर्ज करवा दी. तो श्रंगी धाम के पीठाधीश्वर स्वामी श्रंगी जी महाराज ने बताया कि मानस सभी जाति धर्म औऱ वर्गों को ही नहीं पशु-पक्षियों को भी साथ लेकर चलने वाला ग्रंथ है. ये राम नहीं, मानवता का पंथ है. ये वही राम है, जिनकी राम-राम हिंदीभाषी प्रदेशों के हर गांव में आज भी हिंदू-मुसलमान एक दूसरे को दुआ-बंदगी में कहता है. सत्तावन की क्रांति का सबक तो यही कहता है.

संतों का साधना से भरोसा उठ चला

लेकिन जिस मानस ने सभी से प्रेम सिखाया. उसकी आलोचना पर सीखे-सिखाए लोग वाचिक हिंसा पर उतर आए. अगर ये सच है तो मानस से भला क्या फायदा. क्यों सिखाय़ा जा रहा है कायदा. जिस करुणासमुद्र राम का चरित है मानस. उस ग्रंथ की आलोचना में कैसा अपजस. औरंगजेब ने भी तुलसी के साथ जो नहीं किया, वो चंद्रशेखर के साथ करने पर आमादा हैं. ये आधा गिलास भरा नहीं, गिलास में पानी आधा है. ना मानस से सीखा, ना राम से, फिर तुम भला किस काम के. सच्चाई तो ये है कि राहुल गांधी तपस्या कर रहा है. भले ही सत्ता के लिए ही सही. लेकिन संतों का बात-बात पर रूठने-मनाने का सिलसिला चल निकला है. लगता है कि सियासत के लिए ही सही, संतों का साधना से भरोसा उठ चला है. साधना करते तो इतना ना अधीर होते. सोचो ज़रा क्या होता अगर मौजूदा वक्त में कबीर होते.

हर-हर मोदी के नारे पर धार्मिक जगत मौन

भक्ति आंदोलन ही मंदिरों में कैद भगवान को कठौती तक लाया. मानस पाठ हर घर तक पहुंचाया. आज भक्तों ने क्या खूब नाम कमाया है. अब उसी मानस को लेकर क्रोध व्यापा है. गजब स्यापा है. राजनीति के लिए हर-हर मोदी के नारे पर धार्मिक जगत मौन है. कोई औऱ सवाल उठाए तो पूछा जाता है कि मालूम करो कि हिंदू है या मुसलमान है, पिछड़ा है, दलित है, कौन है. चंद्रशेखर का राम अगर सबका राम होता, तो आज भारत नब्बे फीसदी और दस फीसदी में बंटा ना होता. सच कहता है चंद्रशेखर- हम उस राम के भक्त हैं, जो केवट की नाव चढ़े, उसे सखा बनाया. शबरी के झूठे फल खाए, डोम के घर खाना खाया. भला बताओ संत मानसदास इस राम भक्त को जलाने की बात करते हैं. स्वनामधन्य आचार्य परमहंस अपना नाम धन्य करते हैं. आचार्य जीभ काट कर लाने का ऐलान करते हैं.

जातिवादी समाज पर चंद्रशेखर का बयान एक गहरा तंज

हमारी जातिवादी समाज पर चंद्रशेखर का बयान एक गहरा तंज है. कहा कि सैकड़ों सालों से हमारे पुरखे भी जुबान कटवाते रहे हैं, तो हमारी बहनें स्तन कटवाती रही हैं. सोचने की बात है. पिछड़े-दलित समाज में ये गहरा रंज है. लेकिन आज भी सवर्ण समाज की सोच है कि मुसलमान हमें बड़ा मानें, तो पिछड़े-दलित खुद को सेवक जानें. ऐसे में धर्म-मजहब के नाम पर ध्रुवीकरण के बाद अगड़े-पिछड़े के सवाल पर भी बंटवारा होगा. कबीलों से विकसित हुआ समाज आदिम युग की ओर लौटेगा. अफगानिस्तान, टर्की जैसे मुल्कों से सबक लिया जाना चाहिए. अब बांटने का नहीं, जोड़ने का काम होना चाहिए.

दरअसल सूचना क्रांति के इस युग को विवादित बयानों का युग कहा जाना चाहिए. मोबाइल फोन सूचना का हथियार बन गया है. करोड़ों की तादाद में पोस्ट और वीडियो आपकी आंखों से गुजर रही हैं. लेकिन नज़रें वहीं अटकती हैं, जहां किसी की जुबान भटकती हैं. इसीलिए चंद्रशेखर अपनी कांस्टीट्यूएंसी को एड्रेस करने के लिए सतही बयान देते हैं. तो धर्म की सियासत करने वाले इन बयानों पर तूफान खड़ा कर देते हैं.

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